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मोती रावण कंगाली जी की ही देन है कि कोइतूर समाज पुन: अपने मूल धर्म संस्कृति कि तरफ लौट रहे है

मोती रावण कंगाली जी की ही देन है कि कोइतूर समाज पुन: अपने मूल धर्म संस्कृति कि तरफ लौट रहे है 

30 अक्टूबर को आचार्य मोती रावण कंगाली की पुण्य तिथि पर विशेष


दैनिक गोंडवाना समय अखबार, आपके विचार 

आचार्य मोती रावण कंगाली गोंडवाना आंदोलन के महत्त्वपूर्ण क्रांतिकारी माने जाते हैं। उनके द्वारा किए गए कार्यों और कुर्बानियों के कारण आज गोंडवाना फलफूल रहा है, 30 अक्टूबर को उनकी पुण्यतिथि है और पूरा कोइतूर समाज उनके गोंडवाना आंदोलन में सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान के लिए उन्हे हमेशा याद करता रहेगा।
                


जब कोइतूर लोगों की बोली-भाषा, धर्म-संस्कृति, परंपरा-संस्कार, इत्यादि हिन्दू धर्म की चपेट में आ गए थे और अपने पुराने गौरव, सम्मान और महत्त्व को खो रहे थे तब जन्म होता है, ऐसे महान महापुरुष का जिसके प्रयास से कोइतूरों की मृतप्राय भाषा और संस्कृति धर्म में पुन: जीवित हुई।
            ऐसे महान व्यक्तित्व का नाम है तिरुमाल मोती रावण कंगाली। जिनके योगदान के लिए आज सम्पूर्ण गोंडवाना उन्हे अपना आचार्य और लिंगो मानता है। 

मुख्य धारा की मीडिया में नहीं मिला उचित स्थान 


दुर्भाग्य देखिये कि ऐसे महान लेखक, विचारक, समाजसेवी, इतिहासकार, विद्वान, भाषाविद को गोंडी भाषी लोगों के अलावा बहुत कम लोग जानते और पहचानते हैं। आज के मुख्य धारा का मीडिया में ऐसे महान व्यक्तित्व और असीम प्रतिभा के धनी आचार्य मोती रावण कंगाली जी के बारे में बहुत कम जानने और सुनने को मिलता है। इस लेखन के द्वारा उनके व्यक्तिगत जीवन और गोंडवाना आंदोलन में उनके योगदान के बारे में आम जनमानस को बताने का प्रयास किया गया है। 

2 फरवरी 1949 को हुआ था जन्म और मोतीराम रखा था नाम 

आचार्य मोतीरावण कंगाली का जन्म 2 फरवरी 1949 को महाराष्ट्र के नागपुर जिले के रामटेक तहसील के दुलारा नामक गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम दाई रायतार कंगाली और पिता का नाम दाऊ छतीराम कंगाली था। इनके पिता जी ने प्यार से इनका नाम मोतीराम रखा था। पाँच भाई बहनों में से मोतीराम सबसे बड़े थे। 

प्राथमिक शिक्षा से पीएचडी की उपाधि तक ऐसा था संघर्ष 

बालक मोतीराम की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के निकट ही प्राथमिक शाला, करवाही में हुई जहां पर उन्होने चौथी कक्षा तक पढ़ाई की। आपकी माध्यमिक शिक्षा (5 वीं से 8 वीं तक) आंग्ल पूर्व माध्यमिक विद्यालय बोथिया पलोरा से हुई।
             उन्होने मैट्रिक की बोर्ड परीक्षा 1966 में उत्तीर्ण की। वर्ष 1968 में 10 वीं की पढ़ाई नागपुर के हड्स हाई स्कूल से पूर्ण किया। वर्ष 1969 में प्री यूनिवर्सिटी परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1972 में धरमपेठ महाविद्यालय से स्नातक (बीए) किया।
                पोस्ट ग्रेजुएट टीचिंग डिपार्टमेंट, नागपूर से उन्होने अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और भाषा शास्त्र में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से 2000 में उन्होने पीएचडी की उपाधि मिली जिसका विषय था द फिलासाफिकल बेस आॅफ ट्राइबल कल्चरल वैल्यूज पर्टिकुलरली इन रेस्पेक्ट आॅफ गोंड ट्राइब आॅफ सेंट्रल इंडिया। 

पारिवारिक जीवन और नौकरी पेशा

वर्ष 1973 में उन्होने ओएनजीसी कंपनी मुंबई में लेबर आॅफिसर के रूप में अपने जीवन की शुरूवात की लेकिन वहाँ मन नहीं लगा और जल्दी ही मुंबई से वे नागपुर आ गए जहां उन्होने ने समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और भाषाशास्त्र में मास्टर डिग्रियाँ हासिल की और अपनी मनपसंद काम लेखन में लग गए।
                इस दौरान वर्ष 1976 में 27 वर्ष की उम्र में आपका चयन रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया के नागपुर टकसाल में नोट एंड करेंसी एक्जामिनर के पद पर हुआ। सरकारी नौकरी में आने के बाद वर्ष 1977 में उनका विवाह रायताड़ (कुमारी) चित्रलेखा पुसाम (6 देव वाली) से सम्पन्न हुआ।
             आपकी तीन बेटियाँ है जिनके नाम शृंखला कंगाली, विरांजली कंगाली, विनंती कंगाली हैं। शृंखला आईआरएस अधिकारी हैं और विनंती नेत्र विशेषज्ञ चिकित्सक हैं और इन दोनों का विवाह हो चुका है और दोनों जॉब कर रही हैं।
            तीसरी बेटी विरांजली भी नागपूर में रहकर जॉब कर रही है और माँ के कार्यों में हाथ बटाती हैं। वर्ष 2009 में वह रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया से असिस्टेंट मैनेजर के पद से सेवानिवृत्त हुए और पूर्ण रूप से सामाजिक कार्य में लग गए। 

गोंडवाना दर्शन, जंगो रायतार में प्रारम्भिक लेखन


शुरूवाती दिनों में उन्होने तिरुमाल सुंहेर सिंह ताराम द्वारा संपादित पत्रिका गोंडवाना दर्शन के लिए लेखन कार्य शुरू किया। मराठी भाषा में उनके लेख नागपुर से प्रकाशित होने वाले पत्रिका जंगों रायतार में छपते थे जिसका सम्पादन तिरुमाल (श्री) व्यंकटेश अत्राम करते थे। धीरे-धीरे उनके लेखों के माध्यम से उनकी पहचान नागपुर के मराठी भाषी क्षेत्रों से निकल पूरे गोंडवाना में होने लगी और वे महाराष्ट्र के बाहर भी गोंडी धर्म संस्कृति कि जड़ों की तलाश करने निकल पड़े। 

हीरा-मोती की जोड़ी आज भी लोकप्रिय है 


बाद में दादा हीरा सिंह मरकाम भी आचार्य मोती रावण कंगाली जी से जुड़े। इन दोनों व्यक्तियों कि जोड़ी हीरा-मोती कि जोड़ी के नाम से आम जनमानस में बहुत लोकप्रिय थी। दोनों ने मिलकर एक बहुत बड़ा राजनैतिक आंदोलन खड़ा कर दिया जिसका नेतृत्व दादा हीरा सिंह मरकाम ने किया।
                     इस गोंडवाना आंदोलन के तहत बहुत सारे धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक सभाएं होने लगी जिसमें आचार्य मोती रावण कंगाली बढ़-चढ़ कर भाग लेने लगे और महाराष्ट्र सहित मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश में गोंड जनजातियों के चहेते बनते गए। 

सांस्कृतिक और धार्मिक चिंतन का आरंभ 

आचार्य मोती रावण कंगाली जानते थे कि बिना धार्मिक चेतना के गोंडवाना का आंदोलन आगे बढ़ नहीं सकता इसलिए उन्होने राजनीतिक आंदोलनों से अपने आपको अलग करके धार्मिक जागरण पर सोचना शुरू किया। अपनी शोध के आधार पर उन्होने पारी कुपार लिंगो कोया पुनेम दर्शन पुस्तक का स्वयं प्रकाशन किया और लोगों तक पहुंचाया। 

वर्ष 1989 में कोया पुनेम दर्शन को लिपिबद्ध और प्रकाशित किया 

हम आपको यहां पर बताते चलें कि कोइतूर लोग श्रमण परंपरा के प्राचीन जनजातीय कबीले हैं जो अपनी कोया-पुनेम को कभी लिखित रूप में नहीं लाये बल्कि उनका कोयापुनेम उनके नृत्य, पाटा(गीत), गायन, कला और नेंग सेंग (संस्कारों) द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलता रहा है और कभी भी उसे लिखने कि जरूरत ही नहीं पड़ी लेकिन आधुनिक समय में लोग अपनी परम्पराओं को पहले की तरह पालन नहीं करते और पहले की तरह गोटुल (शिक्षा संस्कार केंद्र) भी नहीं रहे।
                 इसलिए आज बिना लिखे हुए इतने बड़े समाज में कोयापुनेम फिर से स्थापित नहीं किया जा सकता। इसलिए उन्होंने वर्ष 1989 में कोया पुनेम दर्शन को बहुत खोज-बीन, शोध और अध्ययन के बाद लिपिबद्ध किया और प्रकाशित किया। 

अपना नाम मोतीराम कंगाली से बदलकर मोती रावण कंगाली कर लिया था 

उसके बाद से कोयापुनेम दर्शन पुस्तक के कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और लोग पसंद कर रहे और लोग अपने अपने मूल धर्म और संस्कृति कि जानकारी हासिल करके पुन: अपने मूल धर्म संस्कृति कि तरफ लौट रहे हैं। गोंड कोइतूरों में धार्मिक चेतना लाने और उनमें कोया पुनेम को पुन: स्थापित करने का पूरा श्रेय आचार्य मोती रावण कंगाली को जाता है।
                उन्होने कोइतूरों में बढ़ते हिन्दुत्व और हिन्दू संस्कृति के विरोध स्वरूप अपना नाम मोतीराम कंगाली से बदलकर मोती रावण कंगाली कर लिया था। जिसका समाज पर बहुत व्यापक असर पड़ा और आज कई युवा अपने नाम से राम को हटा कर रावण शब्द का प्रयोग करने लगे हैं।
            उन्होने धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विषयों पर बहुत सारी पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन किया। ऐसे समय में जब कोइतूर संस्कृति, कोइयाँ भाषा और कोयापुनेम लगभग मृत हो चुका था तब इन महान विद्वान ने गोण्डों में इन विषयों को फिर से जीवित किया। 

आचार्य मोती रावण कंगाली की कलम का स्वर्णिम संसार 

1. गोंडी लम्क पुंदान (प्रथम पुस्तक), 2. गोंडी भाषा शब्द कोश भाग-1, 3. गोंडी भाषा शब्द कोश भाग-2, 4. गोंडी भाषा सीखिये, 5. गोंडी व्याकरण, 6. बृहत हिन्दी-गोंडी शब्द कोश, 7. मराठी-गोंडी शब्द कोश, 8. सैंधवी लिपि का गोंडी में उदवाचन 9. गोंडी वाणी का पूर्वोतिहास, 10. गोंडी लिपि परिचय, 11. कोया पुनेम ता सार 12. गोंडी श्लोक, 13. गोंडवाना गढ़ दर्शन, 14. गोंडवाना कोट दर्शन, 15. गोंडवाना का सांस्कृतिक इतिहास, 16. गोण्डों का मूल निवास स्थल, 17. गोंडी नृत्य का पूर्वेतिहास, 18. कुँवारा भीमाल पेन ता इतिहास, 19. मुंडारा हीरो गंगा, 20. कोया भिड़ी ता गोंड सगा विडार ना कोया पुनेम उंडे तींदाना मांदी ते वारीना गोंडी मन्तेर्क, 21. तापी नदी की पौराणिक गाथा, 22. कोराडी गढ़ की तिलका दाई, 23. डोंगर गढ़ की बमलाई दाई, 24. चांदागढ़ की महाकाली काली कंकाली, 25. बस्तर गढ़ की दांतेवाडीन वेनदाई दंतेश्वरी, 26. पारी कुपार लिंगो कोया पुनेम दर्शन, 27. गोंडी व्युत्पत्तिमूलक शब्दकोश 

आचार्य मोती रावण कंगाली एक चित्रकार, हस्त शिल्पी और कलाकार भी थे 

एक लेखक, समाजशास्त्री विद्वान, भाषाविद के साथ-साथ आचार्य मोती रावण कंगाली एक चित्रकार, हस्त शिल्पी और कलाकार भी थे। वे बहुत अच्छे और सुरीले गायक भी थे। गोंडी पाटा (गीत) के सुरों की उन्हे अच्छी पहचान और पकड़ थी।
                आचार्य मोती रावण कंगाली शुरू से ही साहित्यिक मंचों और संगठनों के अहम हिस्सा हुआ करते थे। वर्ष 1975 में उन्होने अपने साथियों के साथ मिलकर आदिम भाषा साहित्य संशोधन मण्डल की नींव डाली। उसके बाद आदिवासी विद्यार्थी संघ नागपूर से वर्ष 1977 में जुड़ गए और जब सरकारी नौकरी में आए तब वर्ष 1978 आदिवासी कर्मचारी संगठन में जुड़े।
                वर्ष 1988 को वे अखिल गोंडवाना गोंडी साहित्य परिषद के महासचिव बने बाद में पारी कुपार लिंगो प्रकाशन नागपूर के के्रद्रीय प्रबंध समिति के महासचिव भी रहे। बाद में वे अखिल गोंडवाना गोंडी साहित्य परिषद के अध्यक्ष भी रहे। 

कचारगढ़ की सांस्कृतिक यात्रा की शुरूवात

आचार्य मोती रावण तिरुमाल केशव बानाजी मर्सकोले को अपना सांस्कृतिक गुरु मननते थे, जो कछार गढ़ (कोइली कचारगढ़ ) के पास के ही गाँव महारू टोला के रहने वाले थे, उन्होने ही सबसे पहले आचार्य मोती रावण कंगाली को कछार गढ़ कि गुफा के बारे में बताया था जहां स्थानीय गोंड़ निवासी गोंगों करने उस गुफा तक जाया करते थे। वर्ष 1980 में आचार्य मोती रावण कंगाली तिरुमाल केशव बानाजी (के बी) मर्सकोले और गोंडवाना दर्शन के संपादक दादा सुंहेर सिंह ताराम मिले और तीनों ने कचार गढ़ की पहली यात्रा किया।
                वर्ष 1984 में माघ पूर्णिमा के दिन इन तीन लोगों ने दो अन्य लोग तिरुमाल भारत लाल कोराम और गोंडवाना मुक्ति सेना के सर सेनापति शीतल कवडू मरकाम के साथ गुफा की धार्मिक जात्रा शुरू किया। फिर धीरे धीरे हर साल माघ पूर्णिमा के दिन कई प्रदेशों से कोइतूर लोग इस धार्मिक यात्रा (कचारगढ़ जात्रा) में भाग लेने लगे और केवल तीन लोगों द्वारा शुरू की गयी यात्रा आज वर्षों के बाद लाखों की भीड़ में तब्दील चुकी है। यह उनकी धार्मिक आंदोलन की दिशा में सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है । 

अमर कंटक में गोंडी वंश भीड़ी (देवस्थान) की स्थापना 

आचार्य मोतीरावण कंगाली ने कोइतूरों के उत्पत्ति स्थान अमूरकूट (अमरकंटक) में भी तिरुमाल हीरा सिंह मरकाम के साथ मिलकर एक बड़े धार्मिक मेले का आयोजन प्रारंभ किया था। जहां हर वर्ष 14 जनवरी को लाखों की संख्या में कोइतूर आते हैं और अपनी धार्मिक मान्यताओं को पूर्ण करते हैं। इस मेले में कई प्रान्तों से आए गोंड़ कोइतूर अपने मूल माता-पिता के रूप में नर्मदा उद्गम स्थल पर स्थापित कोया वंश भिड़ी (कोइतूरों की उत्पत्ति स्थल) में गोंगों करते हैं और अपने पुरखों के प्रति प्रेम और कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। 

कोया पुनेम की पुर्नस्थापना एवं प्रचार 

आचार्य मोती रावण कंगाली जी ने गोंड़ कोइतूरों के धार्मिक स्थलों जिन्हे हिंदुओं ने हथिया लिया है उस पर भी बहुत कार्य किया और कई किताबें लिख कर इन देवी स्थानों की सच्चाई को सबके सामने ले आए। जिनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण देवी स्थान जैसे डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी दाई, बस्तर की दंतेश्वरी दाई, किरोड़ी गढ़ की तिलका दाई और चांदागढ़ की कली कंकाली दाई के बारे में उन्होने छोटी छोटी पुस्तकें लिखी।
                गोंडी धर्म संस्कृति के क्षेत्र में उनके कार्य को आगे बढ़ाने की बहुत ज्यादा जरूरत है अगर यह कार्य जल्दी नहीं किया गया तो शीघ्र ही गोंडवाना में आयी धार्मिक जागृति फिर से सुप्तावस्था में चली जाएगी। गोंडी धर्म (कोयापुनेम) को स्थापित और प्रचारित करने लिए उन्होने भुमका (पुरोहित) महासंघ की परिकल्पना की और उसका प्रचार प्रसार शुरू किया जिसे बाद में तिरुमाल रावन शाह इनवाती को सौंप कर खुद लेखन में व्यस्त हो गए। आज भुमका महासंघ महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सहित अन्य राज्यों में अपने भुमकाओं को प्रशिक्षण देकर कोया पुनेम की स्थापना और प्रचार प्रसार के लिए सक्रिय है। 

गोंडी भाषा और कला संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम 

आचारी मोती रावण कंगाली जानते थे कि अगर गोंडी भाषा नहीं बचाई गई तो गोंड, गोंडी और गोंडवाना की कल्पना का कोई मतलब नहीं रहेगा इसलिए उन्होने गोंडी भाषा के संवर्धन, संरक्षण और विकास के लिए बहुत सारी पुस्तकें लिखी। उन्होने गोंडी भाषा को देवनागरी में लिख कर आम लोगों तक पहुंचा दिया और यही कारण है कि आज की युवा पीढ़ी गोंडी भाषा के प्रति अपनी रुचि बरकरार रखे हुए है और गोंडी भाषा का अध्ययन और अध्यापन कर रही है। 

गोंडी भाषा के द्वारा हड़प्पा लिपि को पढ़ा 

आचार्य मोती रावण कंगाली ऐसे पहले भारतीय थे जिन्होने बताया की गोंडी भाषा के द्वारा हड़प्पा लिपि को पढ़ा जा सकता है। उन्होने अपने शोध के आधार पर ये प्रमाणित किया की गोंडी एक प्राचीन भाषा है जिसका संबंध प्राचीन मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की सभ्यता से जुड़ा हुआ है। दिनाक 3 सितंबर 2002 को उनकी पुस्तक सैंधवी लिपि का गोंडी में उदवाचन का विमोचन हुआ था।

अंतिम समय और महापरिनिर्वाण 

27 अक्तूबर 2015 को भोपाल में उनकी जिंदगी का आखिरी कार्यक्रम साबित हुआ। वहीं 28 अक्तूबर 2015 कि सुबह वे भोपाल के गोंड राजा निजाम शाह और रानी कमलापति के गिन्नौर गढ़ किले को देखने गए थे जो की विंध्याचल पहाड़ियों पर काफी ऊंचाई पर बनाया गया है।
                    वहाँ से लौटने पर उन्होने सीने में दर्द की शिकायत की और उस दर्द की स्थिति में कुछ दवाइयाँ खाकर ट्रेन से नागपूर निकल गए। वे 29 अक्तूबर को वे घर पर ही आराम किए और सबसे बातचीत करते रहे लेकिन 30 अक्तूबर की सुबह 6 बजे उन्हे सीने में फिर से तकलीफ हुई और उन्हे अस्पताल उन्हें भर्ती करवाया गया।
                जहां 30 अक्तूबर 2015 को सुबह 9.30 बजे उनकी मृत्यु हो गयी और उसी दिन ही सभी को उनके असमय दुनिया छोड़कर चले जाने का दुखद समाचार मिला। पूरे विदर्भ और गोंडवाना अंचल में उनकी महापरिनिर्वाण दिवस को बड़े सम्मान और आदर के साथ मनाया जाता है और गोंडवाना आंदोलन में उनके योगदान को याद किया जाता है और उनके प्रति संवेदना श्रद्धांजलि के साथ उनके प्रति कृतज्ञता भी व्यक्त की जाती है।
                इस अवसर पर जगह-जगह बहुत सारे सांस्कृतिक आयोजन भी किए जाते हैं जिसमें गोंडवाना की विविध नृत्य, गीत संगीत कला जैसी सांस्कृतिक विरासतों का प्रदर्शन किया जाता है। इस अवसर पर गोंडवाना आंदोलन के सांस्कृतिक स्तम्भ आचार्य मोती रावण कंगाली को कोटि कोटि सादर सेवा जोहार और अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित है।


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