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मजाक बनाकर रख दिये है लोकतंत्र को जिन नेताओं ने उनको सबको कब सिखायेंगे अमरवाड़ा विधानसभा के मतदाता

मजाक बनाकर रख दिये है लोकतंत्र को जिन नेताओं ने उनको सबको कब सिखायेंगे अमरवाड़ा विधानसभा के मतदाता 

क्या जनता का पैसा, दोबारा चुनाव कराकर, खर्च कराने वाले दबदलू को फिर देंगे मतदाता मौका ?

मताधिकार का प्रयोग कर धुत्कार सकते है चाहे तो मतदाताबंधु

अमरवाड़ा उपचुनाव में हासिये पर आदिवासी, सत्ता की चकाचौंध से निकल पायेंगे बाहर 




विशेष खबर
विवेक डेहरिया,
संपादक, गोंडवाना समय
अमरवाड़ा। गोंडवाना समय। 

इतिहास गवाह है कि आदिवासी राजाओं ने कभी भी किसी की गुलामी को स्वीकार नहीं किया, सर कटाया है, तोफ के मुंह में बंधकर अपने चिथड़े उड़ाया है, ऐसे प्रमाण सिर्फ आदिवासियों के ही मिलते है। यहां तक अंग्रेजों की खिलाफत करने वाले यदि भारत में कोई है तो वो सिर्फ आदिवासी ही है और कोई नहीं है।
            


अमरवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में पूरखों के इतिहास के विपरीत ही हो रहा है, स्वार्थ के लिये पाला भी बदल लिया गया है, मतलब साफ है कि इतिहास को उलटकर पलटने का प्रयास किया गया है। खैर यह राजा साहब का निजी मामला है लेकिन इसके चक्कर में जनता का रूपया पैसा भी दोबारा चुनाव कराने में खर्च करवाया जा रहा है।
                लोकतंत्र के महापर्व को मजाक बना दिया गया है, जब जिसकी मर्जी आये तो जीत जाये और जहां मर्जी आये वहां पर चला जाये, जैसे खुद के रूपये पैसे से लोकतंत्र के महापर्व चुनाव के दौरान खर्च को उठाते हो इसलिये फिर से चुनाव कराने के लिये तैयार हो जाते है। सरकार की धनराशि चुनाव कराने में खर्च होती है और यह धनराशि जनता के टैक्स से जमा होती है, इन्हीं पैसों पर जनप्रितनिधि भी ऐश करते है। 

आखिर अमरवाड़ा विधानसभा में उप चुनाव कराने की क्यों आवश्यकता पड़ी ? 


अब सवाल उठता है कि कुछ माह पहले ही अमरवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने विधानसभा चुनाव में मदतान किया, इसके बाद लोकसभा चुनाव में मतदान किया और फिर अब उप चुनाव में विधानसभा चुनाव में मदतान करेंगे।
            सारे काम छोड़ दो, सबसे पहले वोट दो जैसे नारे और जिम्मेदार नागरिकों के अधिकार को सीख सीखकर वे अब यह सोचने में मजबूर हो गये है कि चुनाव जीतने वाले और उप चुनाव कराने वाले जिम्मेदार कब लोकतंत्र को मजाक बनाना छोड़ेंगे। आम जनता के मन में यही सवाल उठ रहा है कि आखिर अमरवाड़ा विधानसभा में उप चुनाव कराने की क्यों आवश्यकता पड़ी ?
                सत्ताधारी दल भाजपा को लोकसभा चुनाव जीतना था, इसलिये भाजपाईयों ने प्रयास करके कांगे्रस के विधायक राजा कमलेश शाह साहब को भाजपा में शामिल करवा लिया। भाजपाईयों ने बड़ी खुशी मनाया, मानो जैसे लोकतंत्र में बड़ी जीत हो गई हो, अच्छी बात है कि भाजपा एक जीते हुये विधायक को अपने खेमे में शामिल करने में कामयाब हो गई।
                इसके पीछे जनता को, मतदाता को कितना नुकसान सहना पड़ रहा है इसका अंदाजा किसी भाजपाई बुद्धिजीवि ने लगाया है क्या ? शायद नहीं उन्हें तो सत्ता पाना है, अपना सांसद और विधायक जिताना और बनाना है बस यही तक लोकतंत्र के मायने है। 

सबक सिखायेंगे या फिर उनका साथ देंगे यह विचार जनता को करना है

अमरवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में दोबारा विधानसभा चुनाव कराने के लिये कौन जिम्मेदार है, क्या कारण है, इसके पीछे कौन जवाबदार है, इसे आम जनता को और मतदाता बंधुुओं को समझना आवश्यक है। लोकतंत्र का महापर्व है, लोकतंत्र का महत्व समझना जरूरी है।
                    लोकतंत्र के महापर्व यानि अमरवाड़ा विधानसभा में उप चुनाव में जो सरकार धनराशि खर्च होने वाली है वह धनराशि कहां से खर्च होगी, कौन खर्च करेगा, इसकी जानकारी जुटाना के लिये आम चर्चा होना जरूरी है। उप चुनाव कराने के लिये जिम्मेदार लोग इस धनराशि को स्वयं खर्च करेंगे, या खर्च उठा रहे है। लोकतंत्र को मजाक बनाने वालों को सबक सिखायेंगे या फिर उनका साथ देंगे यह विचार जनता को करना है। 

हासिये में अमरवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में आज भी जी रहा है आदिवासी


अमरवाड़ा विधानसभा क्षेत्र आदिवासी आरक्षित सीट है, जहां पर लिंगोवासी मनमोहन शाह बट्टी के जमाने में ही एहसास होता था कि यहां पर आदिवासी आरक्षित सीट है और कोई आदिवासी जनप्रतिनिधि विधायक बना है। अन्यथा वर्षों से यही देखते सुनते आ रहे है कि आदिवासी आरक्षित सीट से विधायक बनते है लेकिन कठपुतली बनकर दूसरो के इशारे में नाचते रहते है।
                    अर्थात अमरवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में आदिवासी आज भी हासिये पर ही नजर आ रहा है। चार बिजी से लेकर, गुठली, महुआ, सहित अनेक कीमती वनोउपज सहित मूल्यवान सामग्री पर सिर्फ नाम का ही आदिवासियों का अधिकार है नहीं इन सब पर अन्य वर्गों ने अपना एकाधिकार जमा रखा हुआ है। लोकतंत्र की ताकत भी नाममात्र की अमरवाड़ा क्षेत्र में आदिवासियों के हाथ में है अन्यथा आज भी हासिये में आदिवासी जी रहा है। 


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