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पर्यावरण संरक्षण हेतु, कोयापुनेम एवं प्रकृति की चेतावनी को समझना आज की आवश्यकता

पर्यावरण संरक्षण हेतु, कोयापुनेम एवं प्रकृति की चेतावनी को समझना आज की आवश्यकता

पर्यावरण के प्रदूषण व बदलते मिजाज से जीव-जंतुओं और वनस्पतियों का अस्तित्व संकट मे पड़ गया है

स्थानीय जनजातीय लोगो की भूमिका के चलते पृथ्वी का मात्र 3 प्रतिशत हिस्सा ही पर्यावरणीय रूप से सुरक्षित रह गया है



लेखक-विचारक
सम्मल सिंह मरकाम
वनग्राम-जंगलीखेड़ा, गढ़ी,
तहसील-बैहर, जिला-बालाघाट (मप्र)


विश्व की जनसंख्या में दिनोंदिन वृद्धि होने के कारण मानव समुदाय के आर्थिक विकास को बढ़ाने तथा उसे कायम रखने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अधिकाधिक विदोहन तथा उपयोग के परिणाम स्वरूप प्राकृतिक पर्यावरण की रिक्तता, पर्यावरण प्रदूषण (ध्वनि-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, भू-प्रदूषण) तथा अवनयन में गुणात्मक क्रम मे बेतहाशा वृद्धि होती गयी।
                


इसी का परिणाम आज संपूर्ण मानव समुदाय को पर्यावरणीय असंतुलन के दंश को भुगतना पड़ रहा है। इन्ही कारणो से मानव समुदाय का पर्यावरण अध्ययन के प्रति दिलचस्पी बढ़ती गयी। अध्ययन पद्धति में विज्ञान का प्रवेश हुआ, विज्ञान की प्रगति के फलस्वरूप औद्योगिक क्रांति आयी। मानवीय जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ उपभोक्तावादी संस्कृति मे भी बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई एवं अंधाधुंध प्रकृति का दोहन होने लगा ।

15 दिसंबर 1972 को 'संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम' नामक संस्था का गठन हुआ


प्राकृतिक संसाधनों के वृहद मात्रा मे दोहन, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, शिकार और वृक्षों की कटाई व कांक्रीट जंगल निर्माण संबंधी गतिविधियों से पर्यावरण पर बड़े बदलाव हो रहे हैं। पर्यावरण के प्रदूषण व बदलते मिजाज से जीव-जंतुओं और वनस्पतियों का अस्तित्व संकट मे पड़ गया है। पर्यावरण असंतुलन के संबंध में संयुक्त राष्ट्र संगठन ने एक स्वतंत्र केंद्रीय एजेंसी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी 1970 की स्थापना की एवं 15 दिसंबर 1972 को 'संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम' नामक संस्था का गठन हुआ, जिसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण की रक्षा हेतु किए जा रहे प्रयासों को नेतृत्व प्रदान करना एवं विश्व के देशों के मध्य पर्यावरण की रक्षा हेतु परस्पर सहयोग एवं भागीदारी की भावना में वृद्धि करना है। 

इस चर्चित कान्फ्रेंस ने ही विश्व पर्यावरण दिवस की नीव रखी

वर्ष 1961 में रेचल कार्सन की बहुचर्चित पुस्तक साइलेंट स्प्रिंग से प्रभावित होकर 1972 में संयुक्त राष्ट्र संगठन द्वारा मानव पर्यावरण पर स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे बहुधा स्टॉकहोम कान्फ्रेंस कहते हैं। इस चर्चित कान्फ्रेंस ने ही विश्व पर्यावरण दिवस की नीव रखी, जिसे कान्फ्रेंस के अगले वर्ष 1973 से प्रतिवर्ष मनाया जाने लगा।
            इसी क्रम में 1972 में राष्ट्रीय पर्यावरण आयोजन एवं समन्वय समिति की स्थापना की गयी, तत्पश्चात विभिन्न अधिनियम पारित किए गये, जैसे संविधान के अनुच्छेद-253 के अंतर्गत  वायु-प्रदूषण अधिनियम 1981 एवं पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1996 को अधिनियमित किये गये। 

युनेप द्वारा 1976 में अर्थ स्कैन की स्थापना की गयी 

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू एन ई पी ) में विश्व के पर्यावरण पर निगरानी रखने हेतु एक प्रणाली स्थापित की गयी है, जिसे ग्लोबल इन्वायरमेंटल मानिटरिंग सिस्टम (जी आई एम एस) कहा जाता है । युनेप के माध्यम से पृथ्वी रक्षा कार्यक्रम द्वारा मानवीय पर्यावरण प्रकृति को मॉनिटर करता है। पर्यावरणीय मुद्दों पर मूल लेखों को तैयार कर उन्हे समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं के रूप में मुख्यत: विकासशील देशो तक पहुंचाने हेतु युनेप द्वारा 1976 में अर्थ स्कैन की स्थापना की गयी। 

विश्व पर्यावरण दिवस पर हम सभी इसकी रक्षा का संकल्प तो लेते हैं लेकिन रक्षा की प्रतिबद्धता नही दिखाते हैं 

पर्यावरण की इस बहुस्तरीय व्यवस्था को संरक्षित व सुरक्षित रखने के प्रयासों में एक अनुकरणीय पहल यह भी संभावित है कि बचपन से ही बच्चों के मन मे वैज्ञानिक सोच व विकास पर ध्यान दिया जा सकता है। पर्यावरण संरक्षण का यह विषय संविधान के मूल कर्तव्य अनुच्छेद 51 (क)-(च)(छ)(ज) व संविधान के भाग-3 में वर्णित मूल अधिकार से जुड़े अनुच्छेद-14 में वर्णित समानता के अधिकार में जो प्रितबंध लगाए गए हैं, उनका सीधा संबंध पर्यावरण संरक्षण से है और राज्य के नीति निदेशक तत्वों में पर्यावरण संरक्षण के तहत अनुच्छेद-47, राज्य को मादक पेयों एवं हानिकारक औषधियों के उपयोग का कुछ अपवादों के साथ रोकने के निर्देश देता है। अनुच्छेद-48, के अनुसार राज्य देश के पर्यावरण संरक्षण, उनके संवर्धन एवं वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास से संबंधित है। विश्व पर्यावरण दिवस पर हम सभी इसकी रक्षा का संकल्प तो लेते हैं लेकिन रक्षा की प्रतिबद्धता नही दिखाते हैं।

प्रकृतितुल्य दर्शन, सामाजिक ताने-बाने और प्रकृति को खोखला कर रहे हैं

पर्यावरण संरक्षण संतुलन व संवर्धन व्यवस्था के आधारभूत दृढ़ता की भिज्ञता व चर्चा-परिचर्चा की आवश्यकता है। प्रकृति सम्मत व्यवस्था को वर्तमान तंत्र व देशज समुदाय के संयुक्त प्रयास से धरातल में अनिवार्य शिक्षा के रूप में स्थापित करने की चेष्ठा किया जाना प्रासंगिक प्रतीत होता है ।
            यदि पर्यावरण संरक्षण संतुलन व संवर्धन की दिशा में यह प्रयास साकार हो गया तो हम संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अधिनियमित सभी वैधानिक संस्थाओं, राष्ट्रीय स्तर के पर्यावरण बचाओ आंदोलन के उद्देश्यों के पैमाने पर खरे अवश्य उतरेंगे। अन्यथा अब तक यह स्वीकार करना होगा कि वर्तमान तंत्र, मानवीय मूल्यों, नैतिक चरित्र व पर्यावरण की सुरक्षा में कहीं न कहीं नाकाम रही है।
        यही वजह है कि नगरीय सभ्यताओं, शिक्षित परिवेश व आधुनिक समय में उपरोक्त चिंतनरूपी अपरिहार्य निमित्त कार्यों में मानवीय मूल्यों का अभाव प्रतीत होता है । हर रोज अखबारों की खबरें यह प्रमाण देने के लिए काफी है कि शहरी व उच्च शिक्षित होने का दंभ भरने वाली आधुनिक समाज में, दैत्यवृत्ति,  निर्दयता,  लालच, शोषण,  ठगी,  कत्ल, भ्रष्टाचार, किस प्रकार एक प्रकृतितुल्य दर्शन, सामाजिक ताने-बाने और प्रकृति को खोखला कर रहे हैं ।

आर्थिक लाभ मात्र के लिए पर्यावरण व प्रकृति के दोहन के ग्राफ में, लगातार इजाफा हो रहा है 

क्या हम और आप इस बात पर कभी गौर किए हैं कि पर्यावरण, जल, जंगल, जमीन को अनैतिक रूप से क्षति पहुंचाने के लिए अधिनियमों-नियमों में कठोरतम सजा का प्रावधान है ? हां ऐसे प्रावधान हैं। फिर भी चिंतनीय विषय है कि तंत्र से संरक्षण से आर्थिक लाभ मात्र के लिए पर्यावरण व प्रकृति के दोहन के ग्राफ में, लगातार इजाफा हो रहा है।
             ब्रिटेन स्थित स्मिथ सोनियन एनवायरमेंटल रिसर्च सेंटर के मुताबिक विश्व के केवल 2.7 फीसदी हिस्से मे ही अप्रभावित जैवविविधता बची है, जो बिल्कुल वैसी ही है जो 500 वर्ष पूर्व हुआ करती थी। पर्यावरणविदों के कई शोधों से यह सामने आ चुका है कि पर्यावरण -पारिस्थितिक तंत्र बेहद खराब हो चुका है। मानवीय दखल से दूर रहने के कारण और स्थानीय जनजातीय लोगो की भूमिका के चलते पृथ्वी का मात्र 3 प्रतिशत हिस्सा ही पर्यावरणीय रूप से सुरक्षित रह गया है।

हम प्रकृति की चेतावनी को समझना नहीं चाहते हैं 

शोधोपरांत चिंता का विषय बना है कि हम प्रकृति की चेतावनी को समझना नहीं चाहते हैं, पर्यावरण संरक्षण हेतु तमाम अधिनियम नियम कानून निदेर्शों के बावजूद पर्यावरणीय असंतुलन में विराम नही लगा है। विश्व मे जब भी पर्यावरणीय विकास पर कुठाराघात होता है, देशज समुदाय ही आंदोलन करता है, अपनी जान जोखिम पर डालता है, उसके ही आंखो मे आंसू होते हैं क्यों ?  क्योंकि प्रकृति को देशज समुदाय सिर्फ मानता ही नही बल्कि अंत:करण से विश्वास व आत्मसात करता है। वही उसके अमूल्य धरोहर हैं। दूसरी तरफ  कापोर्रेट जगत के लिए पर्यावरण व समस्त प्राकृतिक संसाधन सिर्फ और सिर्फ आर्थिक स्रोत बन गया है।

विकट समस्या के निवारण हेतु जन-सहभागिता और पाठ्यक्रम में शामिल की जाए

जन जागरूकता पैदा कर और आम जनता को पर्यावरण प्रदूषण एवं पारिस्थितिक असंतुलन से होने वाले दुष्प्रभावों से अवगत कराई जावे एवं विकट समस्या के निवारण हेतु जन-सहभागिता और पाठ्यक्रम में शामिल की जाए। जन-सहभागिता और पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना आज की आवश्यकता इसलिए है कि यदि मानव समुदाय प्रत्येक स्तर पर प्रकृति की प्रतिकृति व्यवस्था का पालन और पाठ्यक्रम में अध्ययन करता है, तो सभी अधिनियमों नियमों व निदेर्शों के क्रियान्वयन को बल मिलेगा। जिससे समस्त भू-भाग में प्राकृतिक संतुलन, संरक्षण व संवर्धन हेतु एक सिद्धांत का अभ्यास नियमित रूप से बना रहेगा। हम बात कर रहे हैं, देशज समुदाय की संस्कृति कोयापुनेम दर्शन की ।

डॉ मोतीरावेन कंगाली ने इस पर गहराई से अध्ययन किये व गूढ़ भावार्थयुक्त साहित्य सृजन किए 

कोयापुनेम अर्थात 'प्रकृति सम्मत व्यवस्था' इसकी परिभाषा विस्तृत है, इसे देशज समुदाय की पाना-पारसी (गोंडी-भाषा) से ही मूलरूप से व्याख्यायित किया जा सकता है। हमें आवश्यकता के दृष्टिगत यहां कोयापुनेम के प्रमुख तत्व-यथा प्राकृतिक संरचना, वनस्पति, जीव-जंतु, भौतिक-अभौतिक तत्वों का समन्वय एवं देशज समुदाय का प्रकृति की प्रतिकृति होने से है।
                    आज तक कोयापुनेम के बारे मे किसी ने भी इतने विस्तृत ढंग से अध्ययन नहीं किया है। फादर एल्विन, आर व्ही रसल, हेमन्डार्फ, सेधु माधव पगड़ी, बी एच मेहता, अनेक समाजशास्त्रियों व पर्यावरणविदों ने गोंड समुदाय जिसकी परिभाषा व्यापक है की सभ्यता और संस्कृति के विषय मे जो कुछ भी लिखा है वह मात्र उनकी ऊपरी क्रियाकलापों की जानकारी मात्र प्रतीत होती है परंतु उस सभ्यता व सांस्कृतिक मूल्यों के पीछे उनका अपना क्या दार्शनिक आधार है ? गोंडवाना भू-भाग के मूर्धन्य साहित्यकार डॉ मोतीरावेन कंगाली ने इस पर गहराई से अध्ययन किये व गूढ़ भावार्थयुक्त साहित्य सृजन किए। 

विश्व के पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रम में कोयापुनेम की शिक्षा महती भूमिका निभा सकती है


इस संकटग्रस्त दशा में हमे प्रकृति के नजदीक, प्रकृति के साथ जीवन-यापन करने वाले समूह देशज समुदाय की कोयापुनेम दर्शन की मुख्य सिद्धांतों व व्यवहारों पर विचार-विमर्श करना होगा। कोयापुनेमी देशज समुदाय की टोटम व्यवस्था एक पारिस्थितिक तंत्र को कैसे संतुलित व संरक्षित करता है, इस पर देशज समुदाय के बुजुर्गों-बुद्धीजीवियों के विस्तृत चर्चा-अभ्यास उनके रीति-रिवाज, प्रथा रूढ़ी और त्यौहारों के प्रति प्राकृतिक नजरिए से समझा जा सकता है।
                जिसमें प्रकृति के संतुलन, संरक्षण व संवर्धन के सिद्धांतों का देशज समुदाय के व्यवहार में पाया जाना एक अनूठा प्रकृति का दर्शन है किंतु हैरानी वाली बात है कि कोयापुनेम व्यवस्था को देशज समुदाय तक सीमित कर देखा जाता है। कोयापुनेम को जानने समझने व विस्तार के लिए आवश्यक विमर्श मे लाने से परहेज करने की कुत्सित मानसिकता को अक्सर हवा मिलती है लेकिन सही अर्थ में आज की आवश्यकता के दृष्टिगत कोयापुनेम व्यवस्था, प्रकृति की व्यवस्था है।
                 जिसे मानव समुदाय द्वारा आत्मसात कर, विश्व के पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रम में कोयापुनेम की शिक्षा महती भूमिका निभा सकती है। जिससे प्रकृति तुल्य नीति, कोयापुनेम व उसकी शिक्षा द्वारा ही प्रकृति के विनाश को रोका जा सकता है। इससे सामाजिक तंत्र में अधिनियमों के अभ्यास व पृथक प्रयास से एक बेहतर उपाय निकालने मे या नियंत्रण मे अतिरिक्त खर्च नही करना पडेÞगा।

विकास के नाम पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति का दोहन कर रहे हैं 

हम सभी को समझना होगा कि मानव के नैतिक व सामाजिक मूल्यो का पतन का सीधा संबंध वर्तमान पर्यावरण असंतुलन के कारण ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ा है। हमारी शिक्षा में कोयापुनेम व्यवस्था का अंश अवश्य हो, दरअसल कोयापुनेम ही मानवीय नैतिक मूल्यों व प्राकृतिक व्यवस्था के संरक्षण संतुलन व संवर्धन के लिए सशक्त माध्यम हैं।
            जो सामाजिक व मानवीय मूल्यों मे अनंत गहराइयों तक समाया हुआ हो। हां एक सीमा तक सही है कि हम भौतिकता व आधुनिकता के साथ चले व तमाम दौंड़ में सम्मिलित हों और वर्तमान रोजगार के अवसरों को प्राप्त करें। मगर नकारात्मक पहलु यह है कि भौतिकता व आधुनिकता से हम अपने सांस्कृतिक पहलुओं, संस्कारों और नैतिक मूल्यों को भी हटा रहे हैं और विकास के नाम पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति का दोहन कर रहे हैं।

अनिवार्य शिक्षा में प्राकृतिक व्यवस्था कोयापुनेम की शिक्षा भी शामिल हो व कोयापुनेम का संहिताकरण भी हो

आज देश ही नहीं विश्व को भी संतुलित पर्यावरण की आवश्यकता है। एक ऐसी स्वच्छ प्रकृति, प्रकृति सम्मत व्यवस्था की जोपूर्णतया विशुद्ध हो, जहां प्राणवायु शुद्ध रूप में मिले, सभी जीव-जंतुओं का जीवनकाल में वृद्धि हो, पर्यावरण प्राकृतिक आपदाओ का शिकार न बने।
                ऐसें मानवीय समाज का निर्माण कर सकें, जहां  प्रकृति में मानव ही नही, सभी जीव-जंतु वनस्पति भौतिक-अभौतिक तत्वों का संतुलन बना रहे। यह लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है, जब विभिन्न सदनो में यह चर्चा परिचर्चा में आये, अनिवार्य शिक्षा में प्राकृतिक व्यवस्था कोयापुनेम की शिक्षा भी शामिल हो व कोयापुनेम का संहिताकरण भी हो। यहां विभिन्न सदनों मे बहस व अध्ययन से मतलब केवल चर्चा मात्र से नही है, इसका मतलब पर्यावरण संरक्षण संतुलन व संवर्धन की दिशा में एक ठोस कदम उठाने की आवश्यकता से है ।

प्रकृति की हूबहू प्रकृती रूपी व्यवस्था का दर्शन होता है 

स्मरणीय यह भी है कि आज से वर्षों पूर्व प्रकृति के संरक्षण हेतु अधिनियम, नियम व कानून बनाए गए हैं परंतु अपेक्षित सहयोग व पालन के अभाव में यह धरासायी हो गये क्योंकि विगत कई वर्षो से मानव समुदाय का उद्देश्य सिर्फ आधुनिकता व भौतिकतावाद ही रहा है।
                यदि हम अपने कोयापुनेम व्यवस्था के तह पर जाकर सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्वो पर विमर्श करें तो पायेंगे कि प्रकृति की हूबहू प्रकृती रूपी व्यवस्था का  दर्शन होता है। जिसमें सभी मानव समुदाय के साथ-साथ प्रकृति के सभी वनस्पति व जीवों को साथ आपसी संबंध व संतुलन बना हुआ है।

देशज समुदाय आज भी इसी पथ पर अडिग व अग्रसर है

प्रकृति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना इतना आसान नहीं है जितना नजर आता है परंतु देशज समुदाय आज भी इसी पथ पर अडिग व अग्रसर है। यही कारण है कि देशज समुदाय ऐसी सुसज्जित व्यवस्था, मानवीय पर्यावरण का निर्माण करती है जिसमें सभी धर्मों के आधारभूत तत्व क्रमश: (1) आत्मपूर्णता की भावना, (2) दार्शनिक चिंतन, (3) आधारभूत सत्ता अज्ञेय, (4) मानव का स्वभाव- गुण,(5) धार्मिक साधना की कसौटी (6) प्रकृति समीपता समाहित है।
            विज्ञान का सार्वभौमिक सिद्धांत है कि जब मानव पर्यावरण, जल, जंगल, जमीन की आबोहवा या परिवेश स्वच्छ व संतुलित रहेगा तो उसका स्वास्थ्य व मन भी संतुलित रहेगा। यदि मानव समुदाय का एक सदस्य भी प्रकृति की अमूल व्यवस्था का अनुशासित रूप में पालन नही करता तो उस व्यक्ति, परिवार, समाज व देश का सर्वांगीण विकास कैसे हो सकता है ?

कोयापुनेम मानव के प्रत्येक वर्ग, जाति, सम्प्रदाय व पंथ के लोगों के रग-रग में बसा है 

कोयापुनेम की वृहद व्यवस्था सिर्फ देशज समुदाय तक सीमित नही है, बल्कि कोयापुनेम मानव के प्रत्येक वर्ग, जाति, सम्प्रदाय व पंथ के लोगों के रग-रग में बसा है, जो प्रकृति के संबंध में सोचते है, प्रकृति की चिंता करते है, प्रकृति तुल्य व्यवहार करते हैं और प्रकृति के बीच रहते हैं।
            मानव समुदाय को कुंठित मानसिकता की सीमाओं से बाहर आकर, निष्पक्ष रूप में देखना होगा कि देशज समुदाय कोयापुनेम को किस प्रकार आत्मसात किया हुआ है, इस पर विस्तृत शोध की भी आवश्यकता है। सर्वविदित है प्रकृति व प्रकृति के संतुलन से ही पर्यावरणीय विकास की रीढ़ मजबूत होती है क्योकि प्राकृतिक आपदाओ व ग्लोबल वार्मिंग के बीच कौन सी फसल का व कहां उत्पादन होता है और कहां हम स्वस्थ्य व स्वच्छंद रह सकते हैं ?

जिससे कभी भी ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरणीय असंतुलन के परिणामो की चिंता की आवश्यकता नही होगी 

पर्यावरणीय प्रदूषण से धरती पर आज जो भयाक्रांत परिदृश्य उभरा है, इससे धरती के एक जिंदा ग्रह बने रहने पर एक प्रश्न चिन्ह उभरता जा रहा है और इस प्रश्न और, भय के मूल में वही प्राणी है, जिसे धरती मां ने इतना फुरसत से गढ़ा, ब्रम्हांड के विकास ने चेतना की सारी शक्ति दे दी और वही प्राणी (मानव) अपनी चेतनाओं और तकनीकि प्रबलताओं के बल पर पर्यावरण और सभी जीवधारियों का स्वयंभू बन बैठा है।
                अभी भी समय है मानव अपनी स्वघोषित स्वामी होने का वहम का त्यागकर ज्वलंत पर्यावरणीय समस्या के लिए मानव इतिहास, उसका साहित्य, उनकी कला, पारिस्थितिकी व पर्यावरण अध्ययन के साथ-साथ कोयापुनेम की शिक्षा  को आत्मसात करे।  यह भी चिंतन करना चाहिए कि कोयापुनेम का विस्तार देशज समुदाय से विश्व के सभी भौगोलिक क्षेत्रो मे व्याप्त है ।
             व्यक्ति, परिवार  समुदाय, समाज  व देश मे कोयापुनेम व्यवस्था समाहित है । जो एक- एक व्यक्ति मे कोयापुनेम से एक प्रकृति सम्मत परिवार,  परिवार से समुदाय,  समुदाय से एक अच्छा मानवीय समाज,  और प्रकृति सम्मत समाज से सुसभ्य देश की पहचान बनेगी, जिससे कभी भी ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरणीय असंतुलन के परिणामो की चिंता की आवश्यकता नही होगी।

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