पर्यावरण को बचाने आदिवासी जीवन शैली को अपनाना और सीखना होगा
जल, जंगल जमीन के मुद्दों पर उनके सुझावों और असहमति के प्रति गंभीरता दिखाना होगा
संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु वर्ष 1972 में पर्यावरण दिवस मनाने की घोषणा की थी जिसका उद्देश्य पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण करना है। इसी उद्देश्य से आज सम्पूर्ण विश्व में विश्व पर्यावरण दिवश मनाया जा रहा है परंतु लगभग 5 दशक बाद भी पर्यावरण संरक्षण आज भी चुनौती है, इसका एक कारण यह भी है कि पर्यावरण दिवश का उद्देश्य मंचो और भाषणों तक ही सीमित रह जाना तथा पर्यावरण के आधार स्तंभ जल, जंगल, जमीन को बचाने संघर्षरत व्यक्ति, संगठन और समुदाय के मांगो को नजरंदाज करना।
बढ़ते औद्योगिकीकरण दबाव और पूंजीवादी व्यवस्था के दबावों मे सरकारे हमेशा से 5 जून पर्यावरण दिवस पर किए अपने वादो और बड़ी-बड़ी बातों को भूल जाते है। इसका तत्कालीन उदाहरण हसदेव छत्तीसगढ़, बक्सवाहा छत्तरपुर, ओडिशा जिले के क्योंझार जिले के गंधलपाड़ा गांव के साल के जंगलो से लाखो पेड़ काटने का मामला सहित अन्य खनन परियोजना जहां खनिज के लिए जिम्मेदार लोग पर्यावरण के संरक्षण के संकल्प को पर्यावरण दिवश के बाद कागजो, भाषणों और सोशल मीडिया में बस जिंदा रखते हुए संकल्पो को दफन कर लाखों पेड़ काटने की मंजूरी दे देते हैं।
जल, जंगल, जमीन को बचाने के लिए आदिवासी समुदाय ही संघर्ष करते है
सरकार, समाज, उद्योगपति, व्ययसायिओं सहित आम आदमी को भी समझना होगा कि जल, जंगल, जमीन पर हक मानवमात्र का नही है अपितु इस धरती में रहने वाले समस्त जीवो का हक है। अत: अपने निजी आवश्यकता के लिए पर्यावरण के आधार जंगलो को बचाया जाए ताकि मानव के साथ-साथ अन्य जीवो के अस्तित्व को बचाकर जैव-विविधता को संजोकर ग्लोबल वार्मिंग जैसे विश्व व्यापी समस्या से बचा जा सकें।
अक्सर देखा जाता है कि जल, जंगल, जमीन को बचाने के लिए आदिवासी समुदाय ही संघर्ष करते है। बेहिसाब खनन हो या जंगलो का एकतरफा कटना हमेशा से आदिवासी समुदायों ने इनका विरोध किया है परंतु सरकार और समाज को सोचना होगा कि इनको बचाना सिर्फ आदिवासियों की जिम्मेदारी नहीं अपितु आप हम सबकी है, परंतु कटते जंगलो, खुदती धरती, अस्तित्व खोती नदी और परंपरागत झरनो को बचाने के लिए आदिवासी समुदाय ही सबसे पहले आता है क्योंकि आदिवासियो की जीवनशैली प्रकृति पर आधारित और अनुकूलित है।
हर गोत्र के लिए एक-एक वनस्पति और जीव निर्धारित रहता है
गोंड समुदाय में हर गोत्र के लिए टोटम व्यवस्था होती है जिसमें हर गोत्र के लिए एक-एक वनस्पति और जीव निर्धारित रहता है। जिसके संरक्षण की जिम्मेदारी उस गोत्र के लोगो की होती है। तमाम आदिवासी समुदाय के शादी, अंतिम संस्कार सहित अन्य संस्कार और त्योहार प्रकृति के अनुकूल होते है। देश ही नही विदेश में भी आदिवासी समुदाय पर्यावरण को बचाने के लिए संघर्षरत है।
केन्या की सम्बुरू जनजाति शिकारियों के सताए जंगली जीवो के लिए खुद अभ्यारण्य बनाकर उनको राहत दे रहे हैं, कुछ दिन पहले की ही खबर है कि आदिवासी बाहुल्य जिले झाबुआ में 4 बुजुर्ग एक पेड़ को बचाने 10000 रूपए आपस में चंदा करके चुकाया है। ये पर्यावरण संरक्षण के लिए भाषण देने वाले लोग नही है अपितु वास्तव मे पर्यावरण को बचाने के लिए जीते जी संघर्ष कर रहे हैं।
जिनके पूर्वजो के संघर्ष ने बरसो से जंगलों को बचाकार रखा है
ऐसे ही एक उदाहरण म.प्र.के डिंडोरी जिला मुख्यालय से तीस किमी दूर पोड़ा गांव की महिला चजियारो बाई की है जिन्होंने जिन्होंने पेड़ कटने के लिए चिन्हित पेड़ो को बचाने के लिए पेड़ काटने वाले ठेकेदार को भगाकर ही दम लिया। आदिवासियों के सुझाव, असहमति और आवाज को समझना होगा। देश के विभिन्न हिस्सों मे जंगलो को बचाने के लिए आदिवासियों के संघर्ष की खबर आती है।
अत: सरकार को उनके सुझावों को ना सिर्फ समझना होगा बल्कि अमल भी करना होगा क्योंकि ये वो लोग है जिन्हें वास्तव मे पर्यावरण की फिक्र है, जिनके रग-रग में प्रकृति बसती है, जिनकी परपंरा और संस्कार प्रकृति के अनुकूल है, जिनके पूर्वजो के संघर्ष ने बरसो से जंगलों को बचाकार रखा है। जो आज भी मानव सहित तमाम जीवो के अस्तित्व के आधार पर्यावरण को बचाने संघर्षरत है।
पर्यावरण को बचाकर ही जीवन के अस्तित्व को बचाया जा सकता है
सरकार हो या समाज सबको पता है कि पर्यावरण को बचाकर ही जीवन के अस्तित्व को बचाया जा सकता है, इसलिए तो लाखो रूपए खर्च करके पर्यावरण दिवस मनाया जाता है परंतु जब पर्यावरण को बचाने के लिए वास्तव मे जब कुछ करना होता है तो पर्यावरण जंगलों के बचाने के संघर्ष को नजरंदाज कर दिया जाता है। बढ़ती जनसंख्या और अत्याधुनिक जीवनशैली भी पर्यावरण के लिए काफी नुकसान देह है क्योंकि इन सभी के संसाधन प्रकृति से ही प्राप्त होते है।
अत: आज जरूरी हो गया है प्रकृति को बचाने एक संतुलित और प्रकृति के अनुकूल जीवनशैली को अपनाया जाए ताकि प्रकृति पर कम से कम दबाव हो और पर्यावरण को संरक्षित किया जा सके। बढ़ती जनसंख्या, खनन, केमिकल के प्रयोग से प्राकृतिक संसाधनों जैसे झरने, नदी, नाले, पारंपरिक, बावली कुओं का अस्तित्व खतरे में है जिससे विभिन्न जीवो के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है, जिसका परिणाम जैव-विविधता पर पडे दुष्प्रभाव और पर्यावरण दिवश के उद्देश्य के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है।
सभी को संकल्प लेना होगा कि अपने जीवन के हर स्तर पर प्रकृति के अनुकूल जीवनशैली को अपनाएंगे
आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वन निवासियों को वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 के तहत वनो के अधिकार पत्र/पट्टे मिशन चलाकर सौंपना चाहिए। समाज सहित सभी जिम्मेदारो को यह समझना होगा कि जंगलों के कटने के बाद और बेहिसाब खनन के बाद ना ही जंगल बनाए जा सकते और ना ही खनन की क्षतिपूर्ति की जा सकतीं। अत: कोशिश होनी चाहिए कि प्रकृति के बेशकीमती उपहार जल, जंगल, जमीन को कम से कम नुकसान पहुचाया जाए।
अन्यथा 1972 के बाद निरंतर पर्यावरण दिवस मनाने के बाद भी देश-विदेश मे लाखो हैक्टेयर वन को हमने खो दिया है। खनन से लाखो हैक्टेयर जमीन आज बंजर हो चुकी है, बहुत सी नदियां आज मर चुकी है, ऐसा नही है कि इसके दुष्प्रभाव से हम दूर है।
हम जीते जागते ग्लोबल वार्मिंग, बाढ़, पीने की पानी की कमी और बेमौसम बारिश से परेशान है, फिर भी हम नही जाग रहे हैं। इस पर्यावरण दिवस पर सभी को संकल्प लेना होगा कि अपने जीवन के हर स्तर पर प्रकृति के अनुकूल जीवनशैली को अपनाएंगे ताकि पर्यावरण को बचाने के उद्देश्य से लाखो करोड़ो खर्च करके मनाया जाने वाले पर्यावरण दिवस का उद्देश्य पूरा हो सके।