गोंडवाना रत्न दादा हीरा सिंह मरकाम जी के अथक सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष का नतीजा है कि समाज में जनचेतना आईं है
दादा हीरा सिंह मरकाम जी का सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष
भविष्य में आदिवासियों पर किस प्रकार की चुनौती आयेगी यह सर्व विदित है और उसके बारे में कई तरह के आकलन भी किए जा चुके हैं। आजाद भारत के बीते इतने वर्षों में आदिवासियों ने जिस प्रकार से राजनीतिक चूक की है, इसके बदले में उन पर ऐतिहासिक हमले हुए हैं। वह दुखद एवं चिंतनीय है। वर्तमान में इस राजनीतिक भंवर के बीच आदिवासी समाज कई गंभीर संकटों का सामना कर रहा है।
हताश एवं क्रोधित समाज जिस प्रकार से देश के अलग-अलग हिस्सों में अन्याय-अत्याचार के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं। वह इस बात की ओर इंगित करता है कि उनसे बहुत बड़ी चूक हुई है जिसे लेकर वे काफी चिंतित है और उन्हें भलीभांति ज्ञात है कि यदि आगे स्थिति यही रही और अतीत में किए गए चूक में बदलाव नहीं किए तो इस प्रजातांत्रिक देश में उनके भविष्य का अंत निश्चित है। दुनिया में बेहद शांत रहने वाला समाज इस मंडराते हुए खतरे को सही रूप से पहचान नहीं पाए या इससे निकलने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पाए।
सामंतवादी, पूंजीवादी और मनुवादी व्यवस्था से निजाद दिलाने सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष खड़ा किया
भारतीय राजनीति के इतिहास को अगर हम खंगालकर देखे तो पता चलता है कि आदिवासी समाज का कांग्रेस के साथ चोली दामन का रिश्ता रहा है। यह रिश्ता वैचारिक कम भावनात्मक अधिक था। इतिहास गवाह है कि भावनाओं के भंवर में आदिवासियों के कई राज-पाठ डूब गए। आधुनिक भारत के इतिहास में एक ऐसे हीरे का उदय हुआ जो अविभाजित मध्यप्रदेश के वर्तमान में छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के ितवरता गांव में एक मध्यम परिवार में दादा हीरा सिंह मरकाम जी का जन्म हुआ।
जिनका राजनीतिक सफर की शुरूआत मास्टर की नौकरी को त्याग कर व्याप्त भ्रष्टाचार और आदिवासी, मूलनिवासियों पर हो रहे अन्याय-अत्याचार को देखते हुए हुआ। कहा जाता है कि राजनीति संभावनाओं को हासिल करने की कला है। जिसे प्राप्त करने के लिए आदिवासी समाज के पुरोधाओं ने आदिवासी बाहुल्य राज्य में आदिवासी सत्ता स्थापित करने के लिए भरसक प्रयास किए।
दादा हीरासिंह मरकाम जी भारत देश के एकमात्र ऐसे आदिवासी जननायक हैं जिन्होंने आदिवासी समाज को सामंतवादी, पूंजीवादी और मनुवादी व्यवस्था से निजाद दिलाने सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष खड़ा किया। जिससे अपनी बोली, भाषा, इतिहास, संस्कृति, साहित्य, संवैधानिक अधिकार और जल, जंगल और जमीन को सुरक्षित रखा जा सके।
बढ़ते जनाधार को देखते हुए कांग्रेस और भाजपा की नींद उड़ गई थी
इस बीच भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों ने आदिवासियों के बीच संघर्ष भरी जीवटता और क्षेत्र में मजबूत पकड़ को देखते हुए टिकट दिया और दोनों राजनीतिक दलों से सदन तक पहुंचे लेकिन अब भी आदिवासी समाज उसी हाशिए पर खड़ा था जहां से उन्हें ऊपर उठने ही नहीं दिया जा रहा था। आदिवासियों में एकता के हालिया प्रयास परवान चढ़कर दिखाई दे रहा था। प्रश्न यह नहीं है कि यह प्रयास चुनावी राजनीति में कितना सफल या असफल रहा लेकिन अभी तक की राजनीतिक हलचल से एक बात तो तय है कि राजनीति में विकल्प कभी मरता नहीं, केवल कुछ समय के लिए अदृश्य हो सकता है।
दादा हीरा सिंह मरकाम जी ने आदिवासी समाज में कोई विकल्प नहीं है का भाव को एक सिरे से खारिज करते हुए सन 1991 में स्वतंत्र राजनीतिक दल गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का निर्माण किया। यह केवल कुछ समय तक के लिए ही नहीं बल्कि दीर्घकालीन तक आदिवासी, मूलनिवासियों के मान-सम्मान व अस्तित्व को बचाये रखने के लिए खड़ा किया। राजनीतिक संगठन खड़ा करने के पूर्व उन्होंने मान्यवर कांशीराम साहब से भी मुलाकात करना मुनासिफ समझा लेकिन उन्होंने दादा हीरासिंह मरकाम जी को ठीक से नहीं समझ पाया। जल, जंगल और जमीन के लिए आदिवासियों का संघर्ष सदियों पुराना है।
जिसे आधार मानकर पार्टी को प्रमुखता से आदिवासियों के बीच लाया। राजनीतिक पार्टी बनाने की प्रेरणा कांशीराम साहब से मिली। उन्होंने तय किया कि जब कांशीराम साहब दलितों के बीच सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन खड़ा कर सकते हैं तो मैं अपने आदिवासी समाज के बीच क्यों खड़ा नहीं कर सकता। इस तरह आदिवासियों के बीच गोंडवाना गणतंत्र पार्टी निरंतर संघर्ष करते रहा।
आखिरकार अपनी पार्टी से पहले दादा हीरासिंह मरकाम जी स्वयं उपचुनाव जीतकर आए और इस नतीजा को देखते हुए आदिवासियों में दादा मरकाम और उनके द्वारा बनाई हुई पार्टी में लोगों की आस्था दिखाई देने लगा। आगे चलकर मध्यप्रदेश में भी 2003 में चुनकर आए। बढ़ते जनाधार को देखते हुए कांग्रेस और भाजपा की नींद उड़ गई थी।
तब दादा हीरासिंह मरकाम जी और उनकी पार्टी के लोगों को दोनों राजनीतिक दलों ने निशाना बनाना शुरू किए
तब दादा हीरासिंह मरकाम जी और उनकी पार्टी के लोगों को दोनों राजनीतिक दलों ने निशाना बनाना शुरू किए। इसकी भनक पार्टी सुप्रीमों को हो गया था पर लोग इसका सही अनुमान नहीं लगा पाए। कुछ लोगों को स्वार्थ ने अपनी ओर खींच लिया जो समय-समय पर आंदोलन को कमजोर करने में अपनी पूरी ताकत लगा दिए। फिर भी इन परिस्थितियों में भी दादा हीरासिंह मरकाम जी जरा सा भी विचलित नहीं हुए।
महान शख्शियत दादा हीरासिंह मरकाम जी के सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष करीबन 40 वर्षों तक अनवरत चला और उन्हीं के त्याग, तपस्या का नतीजा है कि बीते दशक में आदिवासी समाज की सांस्कृितक और राजनीतिक पृष्ठभूमि काफी हद मजबूत देखें गए हैं। जिनके बारे में अपेक्षा है कि वे समय के साथ और मजबूत होते चले जायेंगे। आज समाज में सोंचने और समझने का तरीका भी बदल रहा है और इसे नकारा भी नहीं जा सकता। सांकृतिक पक्ष की बदलती हुई हवाओं का रुख बहुत तेज गति से सामने आ रही है।
जहां एक तरफ जाति और क्षेत्र के आधार पर कभी एकजुट न होने की सिलसिले को खारिज करते हुए अपने धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रथा-परंपरा को बचाए रखने मजबूत एकजुटता का साहसिक कदम भी रख चुके है और इसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरण करना संभव माना जा सकता है लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ आदिवासी समाज ने पूरी तरह से सांस्कृतिक रूप से यू टर्न ले लिया है और गैर संस्कृति के करीब न आने के विरुद्ध मोर्चा भी खोल दिया। अतीत में कभी अपनी संस्कृति को इतना महत्व नहीं दे पाए थे। जिसके कारण यह एक बहुत ही कठिन काम भी रहा है।
एक मुट्ठी चांवल से गोंडवाना का महाकल्याण का महामंत्र आर्थिक सशक्तिकरण के लिए संदेश दिया
हो सकता है यह वक्त की जरूरत हो और आगे की पीढ़ी दादा हीरा सिंह मरकाम जी के संघर्षों को यही सब कुछ मिसाल के तौर पर याद भी करेगी, लेकिन इसे किसी भी हाल में स्वस्थ सांस्कृतिक के पलड़े में रख पाना संभव भी नहीं है चूंकि सत्ता के गलियारा में मौजूद गिद्ध और राजनीतिक बनिहार कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा लाकर सांस्कृतिक पक्षों के बीच हमेशा हस्तक्षेप करते आए हैं ताकि ये लोग कभी एकजुट न हो पाए।
आदिवासी समाज कभी गैर संस्कृति के भंवर में हिचकोले खाती रही और अपने वैभवशाली इतिहास के समृद्धि से कोसों दूर चले गए थे। ऐसे घोर अंधेरों में आंधियों में भी जलाए ज्ञान की मशाल लेकर देश के कोने कोने में बसे समाज को रौशन करने घर से निकले। इस बीच हर चुनौतियों से दो हाथ किए। झकझोरता आंधी तूफान, कड़कती धूप, जाड़े की ठिठुरन और बरसता पानी कभी आड़े नहीं आए।
आदिवासी समाज को अपने गोंडवाना समग्र विकास क्रांति आंदोलन के माध्यम से गैरों की राह से बाहर निकालकर इस मृतप्राय समाज में जान फूंकने का काम किए। सन् 1980 के दशक से दादा हीरासिंह मरकाम जी का सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष अनवरत चलकर आज इस मुकाम पर पहुंचा है कि लोग अपने भूले बिसरे पेन, पुरखाओं की शक्तियों, गढ़ किलाओं और महापुरूषों की संघर्ष भरी गाथाओं को समझ पाने में सक्षम हुए। अपने रचनात्मक कार्यों के बलबूते समाज में एक मुट्ठी चांवल से गोंडवाना का महाकल्याण का महामंत्र आर्थिक सशक्तिकरण के लिए संदेश दिया।
आज लोगों के पास सामुदायिक पूंजी के रूप में प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों के अलग-अलग समूहों में लाखों रुपए जमा है।समाज में व्याप्त गरीबी को देखते हुए तीनों संस्कार(जन्म,विवाह,मृत्यु) में एक किलो चांवल और दस रूपए पैसे की सहयोग से लोगों की मदद करना उनका महत्वपूर्ण कार्यक्रम रहा है जिनमें गोंडवाना आदर्श सामूहिक विवाह देश के अलग अलग हिस्सों में चल रहा है।
उनके संघर्षों का नतीजा यह भी है कि गैरों के हाथों में कभी काबिज पेनशक्ति स्थलों को हम वापस ले पा रहे हैं।कभी सिर झुकाकर चलने वाले समाज को आज सिर उठाकर बात करने लायक बना दिया।समाज की बहन बेटियों को सड़क में काम करते देख हमेशा कहा करते थे मेरी समाज की बहन बेटियों की इज्जत सड़क में बिकने नहीं दूंगा।
दादा हीरासिंह मरकाम जी दूरदर्शी सोंच और दार्शनिक चिंतनकार थे
दादा हीरासिंह मरकाम जी दूरदर्शी सोंच और दार्शनिक चिंतनकार थे वह समाज में शिक्षा की बदहाली और वर्तमान में हो रहे भारी नुकसान जिससे आने वाली पीढ़ी पर इसका किस तरह का दुष्प्रभाव पड़ेगा उन्हें बखूबी पता था उनका कहना था कि जो सरकार तुम्हारी शिक्षा जैसी चीजों को खा जाए जहां शिक्षा व्यवसाय का एक साधन मात्र बन गया हो ऐसे में अगर हम सरकार के भरोसे रहे तो समाज के बच्चों को नौकरी मिलना तो दूर ठीक से एक मजदूर भी नहीं बन पाएगा।
समाज के बच्चे शिक्षा और संस्कार से कोसों दूर हो जाएंगे और इसीलिए शिक्षा को समाज अपने हाथों में लें। उन्होंने कम से कम हर ब्लॉकों में गोंडवाना गणतंत्र गोटूल की स्थापना और संचालित करने पर बल दिया ताकि वहां अच्छी शिक्षा और संस्कार मिल सके और यह उनका सार्वभौमिक सोंच रहा है अर्थात किसी भी वर्ग के बच्चे ही क्यों न हो जो भी आना चाहें वहां आकर अध्ययन कर सकते हैं। इस तरह गोटूल से लेकर विश्विद्यालय की तक इस परिकल्पना को साकार करने की दिशा में काम किए लेकिन किसी ने इसे गंभीरतापूर्वक नहीं लिया, अगर कहीं चल भी रहा है तो सहयोग की अभाव में अपना दम तोड़ रहा है।
वह काम मैं मंत्री होकर भी उनके काम का 25% भी नहीं कर पा रहा हूं
1984-85 के आसपपास दादा हीरा सिंह जी और डॉ. भंवरसिंह पोर्ते साहब अविभाजित मध्यप्रदेश के समय में वर्तमान छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले के ग्राम कामठी में आदिवासी समाज को एक जुट करने पहुंचे थे जबकि दोनों अलग-अलग राजनीतिक दलों से संबंध रखते थे। दादा हीरासिंह मरकाम भाजपा से विधायक और डॉ. भवर सिंह पोर्ते साहब कांग्रेस से मंत्री थे तब दोनों आम के पेड़ के नीचे सभा में बैठे समाज के लोगों को एकजुटता के सूत्र में बंधने के लिए बारी बारी से संबोधित किए।
इस बीच डॉ.भंवर सिंह पोर्ते जी साहब दादा हीरा सिंह मरकाम जी के बारे में जिक्र करते हुए कहा कि जो काम समाज के लिए मरकाम जी कर पा रहे हैं। वह काम मैं मंत्री होकर भी उनके काम का 25% भी नहीं कर पा रहा हूं। इस तरह दोनों का एक साथ मंच में दिखाई देने का आशय यह है कि दोनों कांग्रेस और भाजपा की आदिवासी विरोधी होने का चेहरा समझ चुके थे।
उस कार्यक्रम के बाद दादा हीरासिंह मरकाम जी का दौरा इस क्षेत्र में लगातार होने लगा और 1990 के आसपास ग्राम भोयटोला में गोंडवाना स्कूल समाज के मदद से खुला और लगातार 3 वर्षों तक चल पाया। समाज में जन्म लिए हैं विवाह यही होना है और मरने पर कंधा भी समाज यही देगा जिसका कर्ज चुका चुकाना मेरा पहला परम कर्तव्य है कि भाव ने ऋण मुक्त कर्ज विहीन समाज की संकल्पना को ध्यान में रखते हुए उन्होंने 1 किलो चांवल और 10 रूपए पैसे की सहयोग से सन् 2004-05 से ग्राम कामठी में गोंडवाना आदर्श सामूहिक विवाह संपन्न होते आ रहा है। यह भूमि प्रतापी गोंड राजाओं का कर्मभूमि स्थान रहा है जहां गोंडवाना राज चिह्न हाथी के ऊपर शेर मौजूद है इसलिए दादा मरकाम ने इस गांव को प्रतापगढ़ का नाम दिया। यही से प्रारंभ होकर गोंडवाना आदर्श सामूहिक विवाह अलग अलग क्षेत्रों में कराया जाने लगा और इसी से सीख लेकर राज्य सरकार भी कराने लगे।
मुंगेली जिले में है जहां शिक्षा का केंद्र गोंडवाना शाला त्यागी आवासीय विद्यालय स्थापित किया गया
ग्राम बोड़तरा कला जो मुंगेली जिले में है जहां शिक्षा का केंद्र गोंडवाना शाला त्यागी आवासीय विद्यालय स्थापित किया गया। यहां से पढ़ने वाले बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण करने के साथ ही साथ संस्कारवान और रोजगारवान के गुण सीखे।आज यह गोटूल मदद के अभाव में संचालित नहीं हो पा रहा है।सन् 2010 में आगामी जनगणना को ध्यान में रखते हुए कवर्धा राजाओं का पेनशक्ति स्थल भोरमदेव में दादा मरकाम जी के मार्गदर्शन में सांस्कृतिक और धार्मिक संगोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें कवर्धा नरेश योगीराज सिंह, खैरागढ़ नरेश देवव्रत सिंह और सहसपुर लोहारा के नरेश खड़गराज सिंह को बतौर अतिथि के रूप में आमंत्रित किए लेकिन कांग्रेस और भाजपा की गुलामी के जंजीर में जकड़े और राजशाही की अक्कड़ के चलते ये सभी कार्यक्रम में उपस्थित नहीं हुए। इस तरह दादा मरकाम जी ने राजाओं को भी समाज की मुख्यधाराओ में लाने का प्रयास भी किए।
दादा हीरासिंह मरकाम जी के आंदोलन से समाज में अनेकों साहित्यकार, संगीतकार, गायक, पंडा भुमका, पुनेमाचार्य भी पैदा हुए
दादा हीरासिंह मरकाम जी के आंदोलन से समाज में अनेकों साहित्यकार, संगीतकार, गायक, पंडा भुमका, पुनेमाचार्य भी पैदा हुए जो अपनी कलम और गायन से आंदोलन को आगे बढ़ाने में मदद किए इसी तरह पंडा भुमका, पुनेमाचार्य भी पेन शक्तियों के माध्यम से आंदोलन में मदद कर रहे है। एक समय ऐसा था जब लोग साउंड स्पीकर में भजन सुनने के बजाए दादा हीरासिंह मरकाम जी का भाषण सुनना पसंद करते थे। प्रकृति से हमें निशुल्क मिल रही चीजों का उपभोग कैसे करना है तथा उसे बचाए रखने में या उनसे मिलने वाली सेवा के बदले में हम उन्हें क्या दे सकते हैं और इससे हमारे जीवन में किस तरह का प्रभाव पड़ेगा यह भी जानकारी दिए। आज समाज में जो भी सामाजिक व्यवस्थाएं संचालित हो रही है आंदोलन के माध्यम से समझने का बेहतर अवसर मिला है।
दादा हीरा सिंह मरकाम जी का जीवन बहुत ही सादगीपूर्ण रहा है
महामानव गोंडवाना रत्न दादा हीरा सिंह मरकाम जी के अथक सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष का नतीजा है कि समाज में जनचेतना आईं है जिसके कारण उन्हें अनेकों सामाजिक पदवी से सुशोभित करते हुए पेनशक्ति के रूप में भी पूजा जाता है और लोगों को यह भी ज्ञात रहे कि उन्हें जो दादा शब्द के साथ संबोधित किया जाता है वह ऐसे ही नहीं मिला है गैरों को अच्छे से पता है उनके नाम मात्र सुनते ही लोगों की सांसे अटक जाती थी। वैसे दादा हीरा सिंह मरकाम जी का जीवन बहुत ही सादगीपूर्ण रहा है। सबको साथ लेकर चलने वालों में से एक थे। समाज के वर्तमान पीढ़ी को असाधारण महापुरुष प्रतिभा के धनी गोंडवाना रत्न दादा हीरासिंह मरकाम जी के आदर्शों व सिद्धांतों का पालन करना चाहिए ताकि गोंडवाना समाज के आने वाली नस्लें इस महान विभूति का अध्ययन करते हुए उनसे प्रेरणा ले सके।