गरीब आमजनों पर शिक्षा के व्यापारीकरण का दुष्प्रभाव
दैनिक गोंडवाना समय अखबार, आपके विचार
लेखक-विचारक
राजा रावेन राज तिलक धुर्वे
प्रदेश महासचिव
अखिल गोंडवाना महासभा युवा प्रभाग मध्यप्रदेश
नार-सारसडोली, शहपुरा, जिला-डिण्डोरी, मध्यप्रदेश।
शिक्षा का व्यापारीकरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा हैं, जो धीरे-धीरे मध्यम वर्गीय परिवार को अपने दंश में घेरते जा रहा हैं। हर माता-पिता अपने बच्चों के लिए अच्छी नौकरी व अच्छे जीवन के सपने संजोते हैं और बच्चों के सपने पूरे करने के लिए अपनी पूरी पूंजी लगा देते हैं और अभिभावकों का अपनी पूंजी अपने संतान की शिक्षा में लगाना गलत भी नही हैं।
आजकल बचपन से ही अच्छी शिक्षा के लिए बच्चों को शासकीय विद्यालयों में गिरते स्तर के कारण निजी विद्यालयों में भेजे जा रहे हैं, बच्चों पर पढ़ाई का दबाव इतना अधिक बना दिया गया हैं कि बच्चे अपने खुशहाल अल्हड़पन बचपन को खोते जा रहें हैं। इन कारणों से बहुत से दुष्परिणाम भी हमारे सामने है।
बच्चों पर बुरा मानसिक असर और माता-पिता पर आर्थिक दबाव
निजी स्कूलों में पढ़ने की वजह से पढ़ाई का बोझ कुछ ज्यादा ही रहता हैं। स्कूल के साथ-साथ माता-पिता भी बच्चों को पढ़ने के लिए ज्यादा दबाव देते हैं। निजी स्कूल में पढ़ाने और बेहतर शिक्षा पाने के चक्कर में माता-पिता अपनी आय से अधिक व्यय अपने बच्चों की शिक्षा पर करते हैं। जिससे माता पिता भी मानसिक रूप से पैसों की व्यवस्था को लेकर परेशान रहते हैं।
परिवार का बिगड़ता हैं माहौल और अधिक नम्बर लाने की होड़
आर्थिक तंगहाली के कारण माता पिता में गृह कलह भी बनती हैं। कभी-कभी इस प्रकार का गुस्सा अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों पर या परिवार के अन्य सदस्यों पर भी पड़ता हैं। वहीं मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चों में अधिक नम्बर लाने की होड़ सी मची रहती हैं, हालाँकि अधिक नंबर लाने मे कोई दिक्कत नही है, बच्चों के भविष्य के लिए बेहतर है परंतु उस बेहतर भविष्य के लिए आर्थिक आपाथापी व अस्त व्यस्त समय प्रबंधन के कारण बच्चों के साथ-साथ अभिभावक भी परिवारिक रूप से तनावपूर्ण माहौल में जीवन जीते हैं।
अब कोचिंग के नाम पर इतना पैसा आम मध्यम वर्ग कहा से दे सकता हैं ?
अक्सर देखा गया हैं कि न्यूज में ऐसी खबरें दिखाई जाती हैं कि गरीब किसान, गरीब रिक्शेवाले का बेटा बना अधिकारी, इंजीनियर, डॉक्टर, कलेक्टर आदि आदि, कुछ उदाहरण अपवाद स्वरूप बिल्कुल हो सकते हैं और इननसे प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए प्रेरणा भी मिलती है लेकिन जब बात मध्यम वर्गीय बाहुल्य जनसंख्या में देखें तो मध्यम वर्गीय और गरीबों के यहाँ इस प्रकार की खबरों का प्रतिशत बहुत कम होता हैं क्योंकि वास्तविकता यह हैं कि संघ लोक सेवा आयोग, मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग, व्यापम, बैंकिंग व अन्य प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारियों के लिए बड़े बड़े निजी कोचिंग सेंटर चल रहें हैं।
जिनकी फीस 50-60 हजार से लेकर 1-2 लाख तक रहती हैं या इससे भी अधिक हो सकती हैं। अब कोचिंग के नाम पर इतना पैसा आम मध्यम वर्ग कहा से दे सकता हैं? यह सभी के सामने बड़ा प्रश्नचिन्ह हैं। निजी कोचिंग का सीधा उद्देश्य चयन के साथ-साथ शिक्षा का व्यवसायीकरण के अतिरिक्त कुछ नही है, और बहुतायत देखा जाता है कि पूंजीपति वर्ग इन कोचिंग संस्थान मे अपने बच्चों को दाखिला देकर परीक्षाओं में चयन कराते हैं और व्यवसायिक संस्थानों को बढ़ावा देते हैं । यदि चयन लेना है तो इनका अनुकरण करना पड रहा है जो वित्तीय दृष्टिकोण से मध्यम वर्गीय परिवारों को पूरी तरीके से तोड चुका होता है।
निजी शिक्षा के खेल को समझिए
प्रतियोगिता परीक्षाओं को इतना मुश्किल बना दिया गया हैं कि जो साधारण स्नातक या स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में नहीं पढ़ाया जाता हैं, इन विषयों को पढ़ने के लिए निजी कोचिंग करनी ही पड़ेगी। मतलब हर प्रतियोगिता परीक्षा में बैठने वाला युवा कोचिंग करता हैं। शिक्षा के निजीकरण के कारण कोचिंग संस्थान व ट्यूशन को बढ़ावा मिला हैं। पूंजीपतियों ने कोचिंग संस्थान खोल कर पैसा इन्वेस्ट कर शैक्षणिक धंधा से लाभ कमा रहें हैं, इनका उद्देश्य शिक्षा को बेचना मात्र हैं। एक आम परिवार अपना सब कुछ दांव पर लगाकर अपने बच्चों के भविष्य के लिए ऐसे कोचिंग संस्थानों को भरकर भरकर मोटी रकम देते हैं। वर्तमान में सभी को साक्षर करने के उद्देश्य से सरकार द्वारा शिक्षा का अधिकार तो दिया हैं, जिसमें शुरूआती विद्यालय की शिक्षा नि:शुल्क हैं परन्तु उस नि:शुल्क शिक्षा से केवल देश साक्षर हो सकता हैं। व्यवसायिक पाठ्यक्रम, नौकरी के लिए पढ़ाई, उच्च शिक्षा को निजीकरण के माध्यम से इतना मंहगा कर दिया गया हैं, कि एक आम परिवार उस स्तर के शिक्षा के बारे में सोच भी नहीं सकता हैं। मतलब जो पहले से उद्योगपति लोग हैं, आर्थिक रूप से मजबूत लोग हैं, वही उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त कर पाएंगे, तो निश्चित ही बड़े पदों पर, अधिक सैलरी वाले पदों आर्थिक रूप से मजबूत परिवार के बच्चे ही पहुँच पाते हैं। गरीब परिवार के बच्चे फिर वही के वही रह जाते हैं। सरकार की पूंजीवादी नीतियों और निजीकरण के दौर में इस तरह से आर्थिक रूप से मजबूत और मजबूत होते जाते हैं, गरीब कमजोर तबका और कमजोर होते जाता हैं। यही शैक्षणिक व्यवसायीकरण वर्तमान भारत की नीतियों की सबसे बड़ी गलती प्रतीत होती हैं।
अमीर तबके के बच्चे निजी विद्यालय में अध्ययन करते हैं
संविधान के द्वारा सामान्य शिक्षा की व्यवस्था तो हैं परन्तु यह व्यवस्था जमीनी स्तर पर लागू प्रतीत नही होती हैं। गरीब तबके के बच्चे शासकीय विद्यालय, जहाँ शिक्षक तो दूर की बात हैं, पर्याप्त संसाधन तक नही होते हैं, और अमीर तबके के बच्चे निजी विद्यालय में अध्ययन करते हैं, जहाँ पर पर्याप्त संसाधन, आधुनिक उपकरणों के साथ पढ़ाई, पर्याप्त शिक्षकों की उपस्थिति में शिक्षा दी जाती हैं। ऐसे में गरीब परिवार और अमीर परिवार के बच्चों को नौकरी की परीक्षा के लिए एक ही स्तर की पढ़ाई करनी होती हैं। स्वाभाविक हैं कि अमीर परिवार के ज्यादातर बच्चे उस परीक्षा को पास कर पाएंगे, क्योंकि इन्होने मोटी रकम चुकाकर उसे हासिल कर लिया है और ग्रामीण व मध्यम वर्गीय परिवार जो साक्षर समतुल्य है वह सिर्फ कोरम पूरा करने उस परीक्षा में शामिल हो रहा है।
अमीर और गरीब के इस फर्क को कम करना हैं, तो शिक्षा के व्यवसायीकरण को बंद किया जाना चाहिए
इसी तरह भारत में गरीब आमजनों पर शिक्षा के व्यापारीकरण का दुष्प्रभाव पड़ता रहेगा। देखा जाए तो जनसंख्या के तौर पर हमारा भारत देश दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश हैं परंतु हमारे यहां पर मौजूद अयोग्य शिक्षा प्रणाली व नीतियों, शिक्षा के व्यवसायीकरण से देश की तरक्की में काफी बाधाएं उत्पन्न हो रही हैं, जो देश के प्रत्येक नागरिक को प्रभावित कर रही हैं। करोड़ो शिक्षित बेरोजगारों का भविष्य दांव पर लगा हैं। अमीर और गरीब के इस फर्क को कम करना हैं, तो देश को चाहिए कि सबसे पहले शिक्षा के व्यवसायीकरण को बंद किया जाना चाहिए। शिक्षा केवल शासकीय शैक्षणिक संस्थानों में योग्यता के अनुसार दिया जाना चाहिए, यदि ऐसा हो जाये तो देश कई समस्याओं का निराकरण हो जाएगा।
लेखक-विचारक
राजा रावेन राज तिलक धुर्वे
प्रदेश महासचिव
अखिल गोंडवाना महासभा युवा प्रभाग मध्यप्रदेश
नार-सारसडोली, शहपुरा, जिला-डिण्डोरी, मध्यप्रदेश।