कोयापुनेम की मूल में समाहित है, पर्यावरण संरक्षण
स्वस्थ व स्वच्छ पर्यावरण मानव जीवन का मुख्य आधार है, यही कारण है कि सृष्टि रचना मे जल, वायु, सूर्य, पृथ्वी और वनस्पति वैभिन्य तथा जीवविविधता की रचना के बाद मानव की सृष्टि संभव हुई। पर्यावरण व मानव का संबंध प्रकृति के प्रारंभ से है। कालान्तर में पर्यावरण को हो रहे लगातार क्षति के दृष्टिगत पहली बार 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने पर्यावरण दिवस मनाने की घोषणा की एवं 5 जून 1972 को स्वीडन के स्टॉकहोम में पर्यावरण सम्मेलन का आयोजन किया गया। प्रथम सम्मेलन मे पर्यावरण के संरक्षण संतुलन व संवर्धन के उपायों के लिए 119 देशों ने शिरकत की थी। प्रतिवर्ष के अनुक्रम मे वर्ष 2022 हेतु विश्व पर्यावरण दिवस की थीम केवल एक पृथ्वी रखी गयी है, अर्थात पृथ्वी के साथ सद्भाव में रहना।
यह अजर-अमर सीख देशज समुदाय को प्रकृति सम्मत व्यवस्था कोयापुनेम देता है
पर्यावरण संरक्षण की दिशा में तमाम राष्ट्र, समुदाय व संगठन लगातार कार्य किए हैं व कर रहे हैं, वहीं इस वैश्विक विषय पर देशज समुदाय भी पीछे नही है। संपूर्ण देशज समुदाय प्रकृति सम्मत व्यवस्था कोयापुनेम दर्शन व उसके सिद्धांतों को अंगीकार करता है। कोयापुनेम में पर्यावरण संरक्षण और प्राकृतिक संरक्षण की जड़ें बहुत गहरी हैं, जिन्हे हम बार-बार देशजत्व व्यवहारों से सीचते आ रहे हैं । देशज समुदाय धरती को पेंजिया दाई शब्द से संबोधित करता है, वहीं प्रकृति एवं ऋतुओं के संतुलन व परिवर्तन के मुख्य कारक सूर्य को पूर्वा दाऊ व चंद्रमा को नलेंज दाई का संबोधन देता है। इसके पीछे एक मजबूत धारणा यह हैं कि हम पर्यावरण का संरक्षण करें, ताकि धरा के समस्त जीव-जंतुओं एवं वनस्पतियों का जीवन सुखमय व साम्यमय बना रहे। यह अजर-अमर सीख देशज समुदाय को प्रकृति सम्मत व्यवस्था कोयापुनेम देता है ।
पर्यावरण परिवर्तन के भयावह तस्वीर को जन्म दिया है
कोयापुनेमी देशज समुदाय के पूर्वजों ने इस मर्म को बहुत पहले ही समझ लिये थे कि मानव जीवन, जीव-जंतुओं व वनस्पतियों के जीवन को बनाए रखने के लिए पर्यावरण व प्रकृति का संरक्षण आवश्यक है, क्योकि मानव ही एक ऐसी प्रजाति है जो सोचने समझने व बुद्धि विवेक उपयोग करने की क्षमता रखता है। देशज समुदाय के पूर्वजों को यह भी आत्मभान हो गया था कि आने वाली मानवीय पीढ़ी विकास की इस अंधी दौड़ में प्रकृति का बहुत तेजी से विनाश करेगी, कारण यह कि वह हमारी तरह बुजुर्गों से प्राकृतिक ज्ञान और अनुभव न लेकर, आधुनिकता की अंधी दौड़ मे सिर्फ तकनीकि ज्ञान को प्राथमिकता देगा व व्यवहारिक ज्ञान सोशल साइट्स से प्राप्त करेगा और पृथ्वी व पर्यावरण को निरंकुशता से रौंदता रहेगा। नतीजा यह हुआ कि मानव, जीव-जंतुओं व वनस्पति के सामने भोजन, वायु, जल, ऊर्जा और खनिज आदि की बढ़ती मांग ने पर्यावरण परिवर्तन के भयावह तस्वीर को जन्म दिया है। इन्ही वास्तविक संभावनाओं के दृष्टिगत मानव समुदाय को नियंत्रित व निगमित करने के लिए, देशज समुदाय के पूर्वजों ने कोयापुनेम दर्शन को आत्मसात किया था, जिसमे प्रकृति के संरक्षण, संतुलन व संवर्धन के सिद्धांतों को लेकर पर्यावरण को यथावत रखने के अमिट उपाय संरक्षित हैं ।
देशज समुदाय ने जीवन के हर पहलु में पर्यावरण संरक्षण को सर्वोपरि रखा है
सर्वविदित है पर्यावरण को नुकसान पहुंचाकर सुखमय जीवन की कल्पना नही की जा सकती। देशज समुदाय अपनी धरा के प्राकृतिक वैविध्य के समरूप नेंग-सेंग-मिजानों, की बात व पालन इतने सम्मान के साथ करते हैं, जैसे पर्यावरण के प्रति अपने पुनेमी उत्तरदायित्व की शपथ ग्रहण कर रहे होते हैं। देशज समुदाय ने जीवन के हर पहलु में पर्यावरण संरक्षण को सर्वोपरि रखा है। उनके प्रत्येक संस्कारों में प्रकृति संरक्षण को प्रमुखता दी जाती है और पर्यावरण के सम्यक व्यवहार किया जाता है, क्योंकि मानव को जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रकृति की नितांत आवश्यकता होती है, जबकि प्रकृति व प्रकृति के जीवों को मानव की आवश्यकता नही है। देशज समुदाय के कोयापुनेम में पर्यावरण और प्रकृति के सानिध्य को जीवन से अभिन्न रूप से जोड़कर संरक्षण के संस्कार विकसित किए गये अर्थात प्रकृति के व्यवहारिक परिवर्तन को कई वर्षो से अध्ययन कर मानव समुदाय ने अपने संस्कारों को प्रकृतितुल्य स्थापित किया है।
हमें कोयापुनेम दर्शन से सीख मिलती है कि प्रकृति व पर्यावरण ही प्रकृतिशक्ति का प्रतिरूप है
विशेष उल्लेखनीय है कि जिस कोयापुनेम दर्शन की बुनियाद अचाट मुठवा पहांदी पारी कुपार लिंगो ने रखी, आज सभी जगह व सभी समुदायों में वह व्याप्त है, भौगोलिक अंतर के कारण भले ही स्वरूप भिन्न भिन्न हो, फिर भी मानव का प्रत्येक समुदाय इसे आत्मसात कर संरक्षण का संदेश देता है। हमारे देश मे पर्यावरण संरक्षण की जो समृद्ध परम्परा है, प्राचीन काल से शुरू हुई है व अनवरत जारी है। हर काल व दौर में देशज समुदाय ने पर्यावरण के प्रति सजगता और चैतन्यता को कम नही होने दिया, यह आज भी बनी हुई है, क्योकि हमें कोयापुनेम दर्शन से सीख मिलती है कि प्रकृति व पर्यावरण ही प्रकृतिशक्ति का प्रितरूप है। अत: उसके प्रति आदर व सम्मान का भाव रखकर देशज समुदाय का प्रत्येक सदस्य पर्यावरण व प्रकृति के संरक्षण संतुलन व संवर्धन को विशेष प्राथमिकता देता है।
पर्यावरण की सुरक्षा को संवैधानिक आदेश के रूप में शामिल किया गया
आज समूचा विश्व पर्यावरण असंतुलन से उत्पन्न अनेकानेक समस्याओं से जूझ रहा है। एक तरफ पूरा विश्व इन समस्याओं से दो-चार हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ स्वार्थी मानव निरंतर प्रकृति का दोहन कर रहा है, जिस धरा को हम पेंजिया दाई कहकर पुकारते हैं व सम्मान करते हैं, उसी पेंजिया दाई की छाती को स्वार्थ के नशे में चूर होकर छलनी कर रहा है और ऐसा कृत्योपरांत मानव समुदाय प्राकृतिक पर्यावरण रूपी धरोहर का सबसे विरोधी तत्व बन गया है। इस बीच कानूनों का होना भी आवश्यक है, पर्यावरण संरक्षण संबंधी कानूनों की सफलता मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करती है कि उन्हे किस प्रकार लागू किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संगठन के गठन पूर्व भी 1912 ई में ब्रिटिश शासन द्वारा वन्य पक्षी व जंतु संरक्षण नियम बनाया गया था। स्टॉकहोम में हुए मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के बाद भारत का संविधान संशोधन किया गया और पर्यावरण की सुरक्षा को संवैधानिक आदेश के रूप में शामिल किया गया। संविधान (बयालिसवां संशोधन) के नियम 1976 ने अनुच्छेद-51 क, (छ) के अंतर्गत प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा एवं उसमें सुधार को एक मूल कर्तव्य बना दिया गया है भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण की जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करें और उसका संवर्धन करें तथा प्राणिमात्र के प्रति दया रखें।
उसे पर्यावरण की सुरक्षा व उसमें सुधार का कार्य करना है
नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत राज्य को एक निर्देश यह दिया गया है कि उसे पर्यावरण की सुरक्षा व उसमें सुधार का कार्य करना है। अनुच्छेद-48 क- राज्य देश के पर्यावरण संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21, के अंतर्गत जीवन के अधिकार की माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्याख्या कर स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को भी शामिल किया गया। भारतीय परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण संरक्षण संतुलन व संवर्धन हेतु विभिन्न कानून यथा- (1) जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण ) अधिनियम 1974 तथा 1977, (2) वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1981, (3) वन संरक्षण अधिनियम 1980, (4) पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986, लागू हैं ।
अधिनियमों, नियमों एवं संधियों के साथ-साथ कोयापुनेम दर्शन का ठोस धरातल विद्यमान है
पर्यावरण संरक्षण संबंधी जो प्रावधान संविधान में हैं उसे अनेक अधिनियमों एवं नियमों का सहारा प्राप्त है। वहीं अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में मानव पर्यावरण अभिसमय 1972 (स्टॉकहोम घोषणा), कोकोयोक घोषणा 1974, पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन 1989, पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन 1992 (पृथ्वी शिखर सम्मेलन)- रियो घोषणा एवं एजेण्डा-21, क्योटो सम्मेलन 1997 व उनके मूलभूत सिद्धांत बहुत ही प्रभावकारी हैं। मानव जीवन के लिए पर्यावरण की निंतात आवश्यकता है, वहीं धरा में जीवन को बनाए रखने के लिए प्रकृति व पर्यावरण को सुरक्षित ही नही, बल्कि संभालकर रखना भी आवश्यक है। यह मुमकिन भी है, क्योंकि हमारे पास पर्यावरण संरक्षण के लिए विभिन्न अधिनियमों, नियमों एवं संधियों के साथ-साथ कोयापुनेम दर्शन का ठोस धरातल विद्यमान है, जो टोटम और नेंगी व्यवस्था जैसे प्रमुख आधार स्तंभ युक्त हैं।
संपूर्ण मानव समुदाय को कोयापुनेम व्यवस्था की ओर लौटना चाहिए
आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए पूर्वजों ने नि:स्वार्थ, निष्पक्ष, बिना व्यय के प्रकृति व पर्यावरण संरक्षण, संतुलन व संवर्धन के जो रास्ते हमें दिखाए हैं, हम उस पर अडिग रहें व हर कदम कोयापुनेम की ओर, के सिद्धांत अनुसार अपने कदम बढ़ाएं और एक बार पुन: मिथ्या व भ्रामक तथ्यों को त्यागकर संपूर्ण मानव समुदाय को कोयापुनेम व्यवस्था की ओर लौटना चाहिए क्योकि जलवायु परिवर्तन की रफ्तार निरंतर जारी है जिससे कई सभ्यताएं व प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं । पर्यावरण संरक्षण संतुलन व संवर्धन पर बात की जाये तो यह चिंतनीय है समृद्ध देश ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन व विकास के लिए दी जा रही पर्यावरण की बलि और उससे मची हाहाकार में नियंत्रण कैसे करेंगे ? जब बात प्रदूषण नियंत्रण व पर्यावरण संरक्षण की आती है तब भी हम वहीं खड़े मिलते हैं, जो पल भर में प्रकृति के प्राकृतिक प्रकोप से नष्ट हो सकता है ।
हसदेव अरण्य की रक्षार्थ पूरा देशज समुदाय एक पेड़ एक व्यक्ति के सूत्र पर सुरक्षा के लिए दिन-रात आंदोलन की राह पर है
आज ऐसे देशज तरीकों, दर्शनों व उन पर विस्तृत चर्चा , आत्मसात और क्रियान्वयन की आवश्यकता है, जिनसे उन देशज समुदायों को पर्यावरण संरक्षण का लाभ मिल सके व उन्हे अपनापन महसूस हो सके, जिनके स्वामित्व के धरा पर तकनीकि युग के वाहक, अणु परमाणु बमों के रक्षक, इस बम संस्कृति के अनुयायी, सीमेंट, लोहा पत्थरों से बने कांक्रीट जंगल के सम्पन्न ,धनाढ्य लोग फल-फूल रहे हैं ।
आधुनिकता की चादर ओढकर आंखो में टीन की पट्टी बांधकर हम चाहे देशज समुदाय व उनके पूर्वजों को दकियानूसी कहें, लेकिन यह भी सच है कि -उन्ही की सोच व प्रकृति सम्मत व्यवस्था से हमारी नदियां पेड़ व पर्वत सुरक्षित हैं, पूरी प्रकृति व पर्यावरण सुरक्षित है। ताजा उदाहरण छत्तीसगढ राज्य के हसदेव अरण्य की रक्षार्थ पूरा देशज समुदाय एक पेड़ एक व्यक्ति के सूत्र पर सुरक्षा के लिए दिन -रात आंदोलन की राह पर है। वहीं जिम्मेदारों का पूरा ध्यान प्रकृति की ओर नही, बल्कि अपनी संपन्नता व प्रकृति के विनाश कर, होने वाले वित्तीय विकास पर है। इस देशज समुदाय के कोयापुनेम दर्शन व्यवस्था को आत्मसात कर हम वैश्विक समुदाय के सामने एक अच्छा संदेश देते हुए उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। देश में चहुंओर छाई आडंबरयुक्त धुंध को हटाते हुए,इस संकट की घड़ी में वैश्विक धरोहर कोयापुनेम दर्शन व उसकी शिक्षा का विस्तार कर देश को विश्व गुरू की भूमिका में ला सकते है।