सरकार के साथ, अलग-अलग बंटकर समाजनीति व राजनीति करने वाले भी है आदिवासियों के शोषण व प्रताड़ना के जिम्मेदार
सरकार बनाने वाले भी फायदे में, शोषण करने वालों को भी मिल रहा संरक्षण
विशेष संपादकीय
विवेक डेहरिया
संपादक
आजादी के बाद से सरकार किसी की भी रही हो लेकिन आदिवासी बाहुल्य मध्य प्रदेश में आदिवासी समाज के साथ प्रताड़ना की घटनाओं में त्वरित संज्ञान नहीं लेने की आदत बनाने वाले जिला व पुलिस प्रशासन की रवैया वर्तमान स्थिति में भी उसी राह पर चल रहा है।
अधिकांश घटनाएं तो पुलिस थाना और शासकीय कार्यालयों में बिना आवेदन लिये ही दम तोड़ देती है और नाममात्र की यदि आवदेन ले भी लिये जाते है तो वह फाईलों में धूल खाकर दीमक के हवाले कर दिये जाते है। फिर बची कुछ घटनायें कागजी खानापूर्ति के लिये तो उन पर नाममात्र की कार्यवाही की जाती है।
यही घटनायें नीमच, नेमावर जैसे घटनाक्रम को अंजाम देते है उसके बाद फिर सरकार, शासन प्रशासन की आंख खुलती है मतलब साफ है कि आदिवासियों की हत्या होने या मृत होने की राह देखी जाती है। यदि मानवीय दृष्टिकोण से देखा जाये तो संगीन व गंभीर मामलों में चाहे पुलिस थाना हो या प्रशासन के अन्य विभाग संबंधित अधिकारियों को त्वरित संज्ञान लेकर कार्यवाही करना चाहिये हालांकि कुछ अधिकारी संवेदनशीलता के साथ घटनाओं पर कार्यवाही करते है लेकिन इनकी संख्या ऊंगली में गिनने लायक ही होगी।
कई संख्या में बंटे है समाजिक संगठन
वहीं अलग अलग संगठन बनाकर आदिवासी वर्ग के हितेषी होने का राग अलापने वाले आदिवासी समाज के समाजिक संगठनों की मंचों व रैली में मजबूत स्थिति तो दिखती है लेकिन शोषण, प्रताड़ना की घटनाएं हो ही न पाये ऐसा कोई प्रयास समाजिक रूप में कहीं दिखाई नहीं देता है हां लेकिन घटना होने के बाद ज्ञापन सौंपने का काम, धरना आंदोलन अधिकारियों से मेलमुलाकात का माध्यम उन्हें जरूर मिल जाता है।
आदिवासियों के नाम पर भी बंटे है राजनैतिक संगठन
वहीं हम यदि आदिवासी समाज के हित अधिकारों को लेकर राजनीति करने वाले राजनैतिक संगठनों के लक्ष्य तो एक ही समझ आते है लेकिन समाज का हित को छोड़कर अपनी राजनीति व स्वार्थ की दुकान सब अलग अलग खोलकर चला रहे है। अलग अलग राजनीति बनाम स्वार्थ की दुकान खोलकर चलाने में फायदे में दुकानदार तो है सिर्फ आदिवासी समाज का अंतिम पंक्ति का व्यक्ति ही नुकसान में है ही साथ शोषण का शिकार भी हो रहा है। यही कारण है कि नेमावर हो या नीमच की घटनाओं की पुनर्रावृत्ति होती जा रही है।
ज्ञापनों में अलग-अलग मांग होने के कारण पीड़ित परिवार को नहीं मिल पाता न्याय
आदिवासी समाज के पीड़ित परिवार के साथ शोषण, प्रताड़ना की घटना होने के बाद सामाजिक संगठनों व राजनैतिक संगठनों को भी काम मिल जाता है लेकिन इसमें भी उनमें प्रतियोगिता कम होती नजर नहीं आती है। समाजिक संगठनों के और राजनैतिक दलों के ज्ञापनों में पीड़ित परिवारजनों को लाभ दिलाने की मांगों में ही जमीन आसमान का अंतर होता है।
कोई 1 करोड़ तो कोई 2 करोड़ तो कोई 3 करोड़ तो कोई 5 करोड़ की मांग मुआवजा दिये जाने के साथ ही जांच के मामले में कोई एसआईटी से तो कोई सीबीआई से जांच कराने की मांग करता है, कोई फांसी की सजा की मांग करता है तो सीधे एनकाऊंटर की मांग करता है।
समाजिक संगठनों व अलग अलग तवो में राजनैतिक रोटियां सैंकने वालों की ज्ञापनों में अलग अलग मांगों के कारण ही पीड़ित परिवार को लाभ नहीं मिल पाता है क्योंकि सरकार ही अचंभित हो जाती है कि किस सामाजिक संगठन और किस राजनैतिक संगठन की मांग पूरी करें क्योंकि सभी ज्ञापनों में अलग अलग मांग नजर आती है आखिर किस सामाजिक संगठन या राजनैतिक संगठन को खुश करें या किसको नाराज करें।
इनके स्वार्थ के चक्कर में पीड़ित परिवार प्रताड़ित होकर ही रह जाता है उस परिवार की घटना इतिहास बन जाती है तब तक नई घटना सामने आ जाती है। सरकारी सिस्टम का आपराधिक रिकार्ड में आंकड़े बढ़ते जाते है यही होता आ रहा है।
चुनाव प्रचार प्रसार में समर्थन देते नजर आते है समाजिक संगठन
आदिवासी समाज के हक अधिकारों के लिये संघर्ष करने की दुहाई देने वाले कुछ सामाजिक संगठनों की ये स्थिति है कि 4 साल 11 महिने तक चिल्लाते है कि हमें राजनीति नहीं करना है हमें समाज नीति भर चलाना है लेकिन चुनाव के आते ही अपनी अपनी इच्छानुसार आदिवासी समाज के शोषणकारी नीतियों के संचालक राजनैतिक दलों को समर्थन देकर उनके लिये खुला प्रचार करते हुये समाज के वोट परिवर्तित कराने की गारण्टी लेकर काम करते हुये नजर आते है।
अधिकांश समाजिक संगठन किसी न किसी राजनैतिक दल या चुनावी उम्मीदवार के पक्ष में खड़े दिखाई देते है कुछ ही विरले सामाजिक संगठन होंगे जो सिर्फ समाजिक संगठन को समाजहित में कार्य करने वाले राजनैतिक दलों को समर्थन देते होंगे।
बंटकर लड़ते है फिर भी दावा ठोंकते है हम बनायेंगे सरकार
आदिवासी समाज का शोषण और प्रताड़ित करने वाले को खुली छूट, संरक्षण और सह कहीं और से नहीं मिलती है उसकी वजह आदिवासी समाज के हितकारी हितेषी बनने वाले राजनैतिक संगठनों की भी यही स्थिति है चुनाव के समय सब अलग अलग चुनाव चिह्न, बैनर पोस्टर, पाम्पलेट लेकर समाज को बांटकर जीतने का राग अलापते है।
इनकी बुद्धिमानी और ज्ञान को प्रणाम करना चाहिये कि कई संगठनों में बंटकर चुनाव लड़ते है और फिर भी जीतने और सरकार बनाने का दावा ठोंकते है। नतीजा और परिणाम यह सिर्फ अपने ही संगठनों से करते है कि हमको उनसे ज्यादा वोट मिले है। विरोधी प्रमुख दलों को हराने की होढ़ या प्रतियोगिता नहीं करते है वरन अपने ही लोगों को हराने में जी तोड़कर मेहनत करते है।
आदिवासी समाज को अलग अलग राजनैतिक संगठनों में बांटकर वोट की राजनीति कर सत्ता सुख की प्राप्ति की चाहत रखने वालों की बदौलत ही आज आदिवासी समाज प्रताड़ित होकर खुल्लम खुल्ला सड़क पर घसट घसट कर दम तोड़ रहा है। सरकार तो आदिवासियों के शोषण के बढ़े हुये आंकड़े को छिपाने में लगी है और उसे मालूम भी है कि हम फिर सरकार में आयेंगे आदिवासी बाहुल्य मध्य प्रदेश में राज करेंगे।
आदिवासियों के शोषण को मध्य प्रदेश सरकार रोक पायेगी ये उम्मीद करना ही नहीं चाहिये
नेमावर ही नहीं नीमच जैसी कई घटनायें घट चुकी है लेकिन किसी भी सरकार को कोई फर्क पड़ा तो हो उदाहरण या प्रमाण बतायें, नहीं पड़ेगा क्योंकि उन्हें मालूम है कि जीतते हम ही है और सरकार भी हम ही बनाते है, शासन प्रशासन भी हम ही चलाते है। आदिवासी समाज के साथ होने वाली अमानवीय घटनाओं की पुनर्रावृत्ति न हो पावे इसके लिये कोई ठोस कानूनी पहल नहीं की जाती है।
आरोपियों के मकान ध्वस्त करने से क्या आदिवासी समाज पर अत्याचार करने वाले शोषण करने वालों के हौंसले कम हो रहे है यदि ऐसा होता तो नेमावर में की कार्यवाही के बाद नीमच में ये घटना नहीं घटती। सरकार की कानूनी स्थिति मंत्रालय या मीटिंग में दिखाई नहीं देगी और न ही बड़ी बातें करके धमकी भरे निर्देश देने से कुछ होने वाला है।
ऐसा होता तो मुख्यमंत्री की ये धमकी की गुण्डे, माफिया प्रदेश छोड़ दे नहीं तो जमीन में गाड़ दुंगा। मुख्यमंत्री की धमकी को हवा में क्यों उड़ाया जा रहा है क्योंकि धरातल में कानून व्यवस्था चरमराई हुई है। विशेषकर आदिवासियों के मामले में गर्त में चली गई है। आदिवासियों की न तो पुलिस थानों में और विभागों में कोई सुनवाई होती है। इसलिये आदिवासियों के शोषण को मध्य प्रदेश सरकार रोक पायेगी ये उम्मीद करना ही नहीं चाहिये।
विशेष संपादकीय
विवेक डेहरिया
संपादक