प्रकृति का अनुपम उपहार, जनजातीय जीवन का आधार स्तंभ है महुआ
मनुष्य को प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना माना जाता है। किसी समय मनुष्य भी पूर्णरूपेण स्वस्थ्य और सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण रहा होगा लेकिन आज की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। आज पूरे विश्व में एक भी ऐसा मानव नहीं है, जिसे कोई कष्ट न हो तथा शोक संतृप्त और चिंता से मुक्त हो, तथा निराश व हताश न हो। यहां सब के सब कुछ न कुछ समस्या से घिरे हुए हैं।
इसका एक मात्र कारण है प्रकृति की उपेक्षा
इसका एक मात्र कारण है प्रकृति की उपेक्षा, प्रकृति कभी अन्याय पक्ष नहीं लेती जो भी उसके नियमों का भंग करता है वह उसे दंडित करती है। मनुष्य को हर प्रकार की समस्या व रोग से मुक्त रहने का अधिकार प्राप्त है लेकिन इसके लिए उसे प्रकृति के स्वभाव को समझना होगा उसे अपने तन के स्वभाव के अनुकूल अपनी दिनचर्या का पालन करना होगा। समझने की बात है बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो किसी विपत्ति से फंसने और उलझने से पहले ही अपना बचाव कर ले, फिर भी असावधानी वश अथवा किन्ही कारणों से बीमार हो जाए तो प्रकृति प्रदत पदार्थों से वह पूर्ण ठीक व सामान्य हो सकता है। प्रकृति ने भू-भाग पर ऐसी कृपा की है कि यहां अनेक प्रकार की उपयोगी जड़ी बूटियां पैदा होती हैं, जो घर-घर में कई प्रकार से प्रयोग लाई जाती हैं। जनजातीय समुदाय के सदस्य वन क्षेत्रों से अनेक जड़ी बूटियां दवाइयां को प्राप्त करते हैं। जनजाति समुदाय को इस वन का पारंपरिक ज्ञान महत्वपूर्ण व पुष्ट होता है।
नगरीय सभ्यता में आज की युवा पीढ़ी कुदरत से कोशों दूर है
जनजातीय ग्रामीण जीवन में वनों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। वनों पर आधारित व इनके निकट रहने वाले जनजाति ग्रामीण आबादी के लोगों द्वारा जड़ी बूटियों का उपयोग प्राचीन काल से किया जाता रहा है, इसी कड़ी में उनकी आजीविका में महुआ वृक्ष उनकी जीवन रेखा का आधार स्तंभ है । देश में में निवासरत अधिकांश जनजाति- ग्रामीण आबादी आज भी महुआ फूलों को भोजन व अन्य व्यवहारिक रूप में जीविका उपार्जन के लिए प्रयोग में लाते हैं। विशेष उल्लेखनीय है कि- नगरीय सभ्यता में आज की युवा पीढ़ी कुदरत से कोशों दूर है, उसने महुए की मादक गंध शायद ही महसूस की हो। (दैनिक ट्रिब्यून, अगस्त 2016)
बल्कि हर प्रकार की मिट्टी में शुष्क वन में पाया जाता है
महुआ भारत, नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार, के साथ साथ मध्य एवं उत्तरी भात के कई हिस्सों में पायी जाती है। मुख्य रूप से मध्य गुजरात राज्य के पश्चिमी भाग पूर्वोत्तर सीमाओं से छोटा नागपुर तक एक पर्णपाती वृक्ष के रूप में समुद्र तल से 1200 मीटर ऊंचाई तक पाया जाता है, यह फैले हुए वृक्ष छत्रनुमा लगभग 20 मीटर ऊंचाई तक प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले वृक्ष के रूप में जाना जाता है। यह छाया में कम पनपता है, बल्कि हर प्रकार की मिट्टी में शुष्क वन में पाया जाता है । यह वृक्ष महज 12-15 वर्ष के आयु बाद उत्पादन (फूल एवं फल) देना शुरू कर देता है ।
गोंडी- ईरूक के नाम से जाना जाता है
्फोटो-बस्तर भूषण
महुआ का वानस्पतिक नाम- मधुका इंडिका है, भारत में महुए की क्षेत्रवार अनेक प्रजाति हैं, जो क्रमश:- मधुका लैटिफोलिया- उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, ओड़िसा, छत्तीसगढ़, बिहार, जम्मूकश्मीर , मधुका लोंगिफोलिया- दक्षिण भारत, मधुका बुटेरेसिया-कुमाऊ एवं गढ़वाल क्षेत्र, मधुका नैरिफोलिया- मुंबई, कनारा, चैन्नई, मैसूर क्षेत्र, मधुका बर्डी लोवाई- मैसूर एवं पश्चिमीघाट क्षेत्र में पायी जाती है। (डाउन टू अर्थ- अगस्त 2019) वहीं महुए का अंग्रेजी नाम - बटरनट ट्री है। स्थानीयता, पृथक भौगोलिक वितरण व क्षेत्रीय भाषाओं के अनुसार महुआ के भिन्न-भिन्न नाम हैं, बांगला- माहल, मोहवा , गुजराती-माहुदो, मावड़ो, पंजाबी- मोहवा, उड़िया-मड्गी, मोहा, कन्नड़- हाइप्पे,हौंगे , मलयालम- इलूपा, तेलगू- इप्पा, इप्पी, तमिल- इल्लुपाई, इल्लूपा, गोंडी- ईरूक के नाम से जाना जाता है ।महुआ के फूलों एवं फलों का संग्रहण कर रोजगार प्राप्त करता है
यह एक उष्ण कटीबंधीय वृक्ष के साथ एक बहुपयोगी वृक्ष है, जनजातीय समुदाय एक बड़ा भाग महुआ के फूलों एवं फलों का संग्रहण कर रोजगार प्राप्त करता है। वहीं आज चिकित्सा के नाम पर नित नये दवाइयों के उपयोग के कारण लोगों की जान खतरे में पड़ गयी है , ऐसे में जनजाति समुदाय अपने देशज, पारंपरिक चिकित्सा पद्धति के सहारे आम जीवन में अनेक वनस्पतियों से कई प्रकार के गंभीर बीमारियों की अचूक इलाज कर सकते हैं ।
आक्सीजन, स्वरोजगार, आय करता है प्रदान
यह वृक्ष प्राणवायु का बड़ा व बेहतरीन स्रोत है। इसके आसपास के वातावरण में पर्याप्त आक्सीजन होती है । जब ग्रामीण क्षेत्रो में कृषि का दबाव कम होता है, रोजगार की भीषण समस्या होती है तब महुआ का फूल तथा फल जनजातीय समुदाय व निर्धन परिवार को भोजन तो देते ही हैं, साथ में मौसमी रोजगार भी उपलब्ध कराते हैं। महुआ वृक्ष के फूल और फल का वैज्ञानिक विदोहन प्राचीन प्रसंस्करण और भंडारण की पर्याप्त जानकारी ना होने के कारण उनके द्वारा संग्रहित किए गए महुआ फूलों का उचित दाम नहीं मिल पाता है। इसी को ध्यान में रखते हुए महुआ फूल उत्पादन से लेकर उसके संग्रहण पर संस्करण भंडारण एवं परिवहन के समय आवश्यक सावधानी की जानकारी का उल्लेख प्रासंगिक है । जो कि उत्तम श्रेणी के फूल संग्रहण के साथ-साथ मूल्यवर्धन में भी उपयोगी सिद्ध होती है। वर्तमान समय में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उत्तम श्रेणी के फूल संग्रहण एवं भंडारण के कारण महुआ फूल संघों को उचित मूल्य प्राप्त होगा एवं उनके आय में वृद्धि होने से उनके जीवन स्तर में सुधार होगा । महुआ के उत्पाद जनजाति समुदाय का महत्वपूर्ण भोज्य पदार्थ है, वनांचलों में बसे ग्रामीणों के लिए रोजगार के साधन व खाद्य ग्रुप में महत्व बढ़ जाता है ।
मध्यप्रदेश में लगभग 75000 परिवार, महुआ संग्रहण का कार्य करती है
संविधान के 73 वें संशोधन के फलस्वरूप ग्यारहवीं अनुसूची, पंचायती राजव्यवस्था में ग्राम पंचायतों में ग्राम सभा गठन का प्रावधान है । लघुवनोपज का स्वामित्व ग्राम सभाओं को सौंपा गया है । ये फूल फोटोट्रॉपिक होते हैं। अर्थात सूर्य की रोशनी के प्रति ये संवेदनशील होते हैं और ये सूर्य की रोशनी की अहसास व सूर्य की रोशनी में ही खिलते हैं। फूल मार्च के द्वितीय- तृतीय सप्ताह लगभग में शुरू होते हैं एवं यह अप्रैल के अंतिम सप्ताह तक अधिकतम चलता है। फूल संग्रहण की देसी तकनीक-वृक्ष के नीचे सफाई करके रखा जाता है और वहां से फूलों का संग्रहण किया जाता है। वही वृक्ष के नीचे कचरा एकत्र कर आग जला दी जाती है इससे यह नुकसान भी होता है कि आजू-बाजू का जंगल भी नष्ट हो जाता है। फूल संग्रहण की वैज्ञानिक तकनीक उच्च गुणवत्ता के लिए वृक्ष के नीचे नेट त्रिपाल पॉलिथीन पुरानी साड़ी की सीट को काटकर वृक्ष के नीचे जोड़कर फूल संग्रहण के लिए तैयार किया जाना चाहिए । जिससे फूल गिरते समय सुरक्षित व उत्तम गुणों वाला बना रहे, इसी प्रकार से फूल टूटे ना, टुकड़े ना हो और ना ही उस पर कचरा आए, वृक्ष के नीचे पत्तों को यथावत रहने दें। जिससे फूल के गिरने पर खराब नही होती और उनकी गुणवत्ता भी खराब नहीं होती है। मध्यप्रदेश में लगभग 75000 परिवार, महुआ संग्रहण का कार्य करती है, (शासन से प्राप्त लायसेंस सुधा परिवार संख्या) यह संख्या म प्र के अनुसूचित जनजाति आबादी का नगण्य, लगभग 2% मात्र है।
उत्पादन
महुआ फूल का उत्पादन वर्ष में लगभग 30-35 दिन तक होता है, यह फूल मार्च से-अप्रैल अंतिम सप्ताह तक रहता है, जबकि इसकी खपत वर्षभर होती है अत: यह आवश्यक हो जाता है कि महुआ फूल को किसी तरह से संभाल कर साल भर रखा जाए, क्योंकि महुआ फूल में पानी का प्रतिशत 20% से अधिक होता है जिससे इसके भंडारण के दौरान खराब होने की आशंका ज्यादा रहती है । अत: सुखाकर भंडारण किया जाता है, भारत सरकार स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय आयुष विभाग के द्वारा प्रकाशित बुलेटिन में महुआ फूल गुणवत्ता परीक्षण में निम्न घटक होने की अनुशंसा की है।
(1) अपशिष्ट पदार्थ- 2% से अधिक नही, (2) कुल राख- 5% से अधिक नही, (3) अम्ल अघुलनशील राख- 0.5% से अधिक नही, (4) एल्कोहल घुलनशील सार- 25% से कम नही, (5) जल घुलनशील सार- 70% से कम नही, (6) आद्रता भाग- 10% से अधिक नही, (राज्य वन विकास निगम- प्रतिवेदन 2018)।
महुआ फल, संग्रहण, भण्डारण
महुआ वृक्ष में जून-जुलाई के मध्य फल पकता है जो कि भूरा केसरिया रंग के गूदेदार फल के रूप में दिखाई देता है, इसमें एक से 4 तक चमकदार बीज या गुल्ली पाई जाती है गूदों को हाथ से दबा कर हटाया जाता है तथा 5 घंटे पानी में दबाकर रखा जाता है इसके बाद बीज को पत्थर से पीटकर अलग किया जाता है, एक वृक्ष से अनुमानत: 20 से 40 किलोग्राम गुल्ली मिलता है। छत्तीसगढ़ प्रांत के बस्तर एवं आंचलिक क्षेत्र में गुल्ली टोरा के नाम से जाना जाता है। प्राचीनकाल में गुल्ली से तेल निकालने हेतु कोयतुरियन तकनीक यंत्र पिटला का प्रयोग होता रहा, इस कोयतुरियन तकनीक यंत्र पिटला धरोहर के रूप में सुरक्षित व संरक्षित रखा हुआ है एवं आज भी दूरस्थ व ग्रामीण अंचलों में इस यंत्र का उपयोग होता है। तेल निकालने के बाद अवशेष रूप खली होता है, जिसका उपयोग मच्छर एवं विषाक्त जीवों को भगाने में किया जाता है। विज्ञान के इस युग में अब महुआ बीज (गुल्ली, टोरा) से तेल वैज्ञानिक प्रसंस्करण से निकाला जाता है इसकी गोली में 35 से 38% तेल होता है।शोध अनुसार महुआ के बीज में पोषक तत्व- (1) वसा- 31-50% (2) प्रोटीन- 16.9% (3) काबोर्हाइड्रेट - 22% (4) फाइबर -3.2 % पायी जाती है ।
महुआ लघु वनोपज जनजाति आधारित, जनसंख्या हेतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण है
पारम्परिक रूप में उपयोगिता- महुआ जनजातियों व गैर-जनजातियों में कल्पवृक्ष समान है । महुआ कल्पवृक्ष इसलिए है क्योकि इसके सहारे कई घरों का चूल्हा भी जलता है। (बस्तर भूषण-16 मार्च 2020) जनजातीय समुदाय में प्राचीन परम्परा अनुसार विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग किया जाता है । इसका महत्व निम्न उपयोग से समझा जा सकता है । (1) फोडर - पत्ती फल फूल का उपयोग बकरियों एवं जानवरों मे दुग्ध वर्धक के रूप में, (2) टिम्बर- इसकी लकडी सख्त, बहुत बजन व मूल्यवान होता है, मार्केट में क्रय विक्रय हेतु निर्धारित मूल्य 929 रू. प्रति घन मीटर है, (3) मिट्टी कटाव नियंत्रण- इसकी जड़ तंत्र इस प्रकार व्यस्थित होते हैं कि मिट्टी का कटाव आसानी से नही हो सकता है, (4) छाया /शेल्टर के रूप में - पशुओं के लिए छाया, एवं अनुपजाऊ अनुपयोगी भूमि में प्लांटिंग हेतु उपयोगी है, (5) नाइट्रोजन फिक्सिंग- जड़ो मे नाइट्रोजन स्थरीकरण की क्षमता होती है, जिससे जमीन उपजाऊ बनती है, (6) मिट्टी उर्वरावर्धक- इसकी खली 100% तक खाद्य का काम करती है, (7) आनार्मेंटल उपयोग- यह सुगंधित वस्तुओं के निर्माण हेतु उपयोग की जाती है, (8) बागड़ - यह वृक्ष कृषक के भूमि सीमा पर बागड़ के रूप मे और बागड़ को आधार प्रदान करते हुए लगाये जाते हैं, (9) इंटरक्रोपिंग- यह कृषि क्षेत्र में विस्तारित भूमि में इंटरक्रापिंग हेतु उपयुक्त होता है, (इंटरनेशनल जर्नल आफ ह्युमनाटीज एंड सोशल साइंस इन्वार्यमेंट वोल्युम-2 इश्युज-5,मई-2013)
सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्र में महत्व
फूल का उपयोग, एल्कोहल (शराब) उत्पादन में किया जाता है । यह शराब विज्ञान के आसवन विधि के माध्यम से तैयार किया जाता है। कोयावंशी कोयतुरियन समुदाय के पालनहार होने के कारण इसे गोंडी भाषा में ईरूक पुंगार के साथ-साथ कोयापुंगार के नाम से भी जाना जाता है। महुआ फूल का उपयोग गोंगो नेंग, पेन- पट्टाओं एवं महुआ रस या महुआ शराब का उपयोग मड़मींग के चुहोनी नेंग में किया जाता है । और यह चुहोनी नेंग सामाजिक रूप से बहुत मजबूत शपथपत्र व प्रमाण की भूमिका निभाता है। चुहोनी नेंग के बाद रिस्ते संबंधी निर्णय अपरिवर्तनीय होती है। (आर्टिकल- पी एस मरावी भोपाल- 2020)
उपरोक्त छूट जनजाति संस्कृति की महत्ता के दृष्टिगत दी गयी है
म प्र आबकारी अधिनियम 1915 की धारा 61 (घ) (संशोधित), के अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को देशी शराब का निर्माण कर घरेलू व सामाजिक और धार्मिक समारोहों पर उपयोग के लिए छूट दी गयी है । यह छूट प्रति व्यक्ति- 4.5 लीटर, प्रति गृहस्थी -15 लीटर, एवं विशेष परिस्थितियों में समारोहों पर 45 लीटर होगी । इसी प्रकार सांस्कृतिक मूल्यों के दृष्टिगत छत्तीसगढ़ राज्य मे भी छूट प्रदान की गयी है। शासन के मंशानुसार महुआ से बनी शराब को बेचा नही जायेगा, बल्कि सामाजिक, धार्मिक कार्यक्रमों में में आवश्यकतानुसार उपयोग की अनुमति होगी । उपरोक्त छूट जनजाति संस्कृति की महत्ता के दृष्टिगत दी गयी है लेकिन जनजातीय जनसंख्या का बहुतायत प्रतिशत इस छूट का अर्थ अलग प्रकार से निकालता है एवं पेय पदार्थ के रूप मे शराब का इस कदर सेवन करता है और नशे में लिप्त हो जाता है। नशे की लत इस तेजी से गिरफ्त मे लेता है कि जनजातीय समुदाय को असमान और भिन्न विचारधारायें आपके मन:स्थिति को गुमराह या विचलित कर आपके बहुमूल्य मत हासिल कर आपके सांस्कृतिक धरोहरों पर कुठाराघात करे तो भी आप मूकदर्शक बने रहेंगे । यही समतुल्य स्थिति कई वर्षों से आज तक बनी हुई । जनजातीय समुदाय को नशे की गिरफ्त से बाहर आकर अपने बहुमूल्य मताधिकार का मूल्य जानना होगा ।
पारम्परिक औषधि व स्वास्थ्य संबंधी उपयोग
फूल के अंदर विद्यमान, एंजाइम्स के रूप में कैटलेज, आक्सीडेज, इनर्टेज, काल्टेज, एमीलेज, इक्सासीन, की पहचान की गयी जो कि औषधि उपयोग में आते हैं। तेल का उपयोग, गठिया, सिरदर्द, पुरानी कब्ज, भगंदर, आदि रोगों के लिए। फूल शीतल -धातुवर्धक तथा पित्त बात, का नाशक है। फल शीतल शुक्र जनक धातु और बलवर्धक श्वांस व क्षयी आदि को दूर करने वाला है । तेल त्वचा की देखभाल व गिलिसरीन के रूप में उपयोग होता है। इंडियन जर्नल आफ नेचुरल प्रोडक्ट्स प्रतिवेदन 2010 के अनुसार शिशुओ को स्तनपान कराने वाली माताओं में दुग्धवर्धक के रूप में उपयोग किया जाता है। वहीं महुआ का शराब केमिकल से मुक्त होता, आयुर्वेद महत्व की औषधियों का यह खजाना है । महुआ की मादक गंध और महुआ से शराब बनाने की बात अब पुरानी हो चुकी है। एक तरफ देश कोरोना महामारी से परेशान है, वहीं दूसरी तरफ देश में कुछ स्वदेशी, अविष्कार भी हो रहे हैं। इसी बीच छत्तीसगढ़ जशपुर जिले में महिला स्वसहायता समूह के साथ मिलकर 31 वर्षीय युवा वैज्ञानिक समर्थ जैन ने महुआ के फूल से हैंड सेनेटाइजर बनाया।
पुरातन काल से ही सेनेटाइजर के रूप में उपयोग करता आ रहा है
विशेष उल्लेखनीय है कि जनजाति समुदाय पुरातन काल से महुआ के शराब को हैंड सेनेटाइजर के रूप में उपयोग करता आ रहा है। प्राचीन समय में गांवो के समस्त घर प्राय: मिट्टी के होते थे । हर घर के दरवाजे में एक शीशी (महुआ शराब युक्त) लटकी होती थी, जिसको हाथ मे लगाकर व्यक्ति घर में प्रवेश करता था और हाथ मे लगाकर बाहर जाता था । भले ही उसे पता नही था कि यह सेनेटाइजर्स है। वह इतना जानता था कि किसी भी प्रकार की बीमारी या दोष हमारे साथ हमारे घर में प्रवेश नही कर सकता है लेकिन जनजाति समुदाय के जीवनशैली, जीवन परंपरा में महुआ रस विषाणु नाशक ऐसे सैनिटाइजर के रूप में उपयोग प्राचीन काल से चलायमान है।
खाद्यान्न के रूप में उपयोग
महुआ वृक्ष का प्रत्येक भाग अपनी उपयोगिता रखता है, उसकी पत्तियां, फल फूल पौष्टिक होने के कारण, मनुष्य के भोजन के साथ साथ जानवरों के लिए चारे का काम करती है। ग्रामीण अजीविका का सहारा है, जनजाति समुदाय इसका उपयोग खाद्यान्न रूप में करती है। फूल रस से कोया, कुड्डुम, रसकूटा, लड्डू, लाटा (क्षेत्रवार बनाने की विधि भिन्न भिन्न हैं), राब, डोभरी, खोल्ली, बिस्किट्स, सलोनी, खरा, कतरा, आचार, आदि के रूप मे होते हैं। महुआ शर्करा का स्रोत है-इसमें अत्यधिक शर्करा विटामिन कैल्सियम एवं अन्य पोषक तत्व होने के कारण जैम सीरफ, मिठाई आदि भोज्य पदार्थ के रूप मे किया जाता है । गुल्ली तेल का उपयोग चाकलेट व खाने के पदार्थ के रूप मे किये जाते हैं ।
व्यापारिक उपयोग
महुआ का बीज तेल प्राप्त करने का प्रमुख स्रोत है- इसके शुद्धीकरण के बाद चाकलैट, मोमबत्ती, साबुन व सौंदर्य प्रसाधन बनाने मे भी उपयोग किया जाता है और इस निर्माण उद्योग से आय प्राप्त की जाती है । दोना और पत्तल उपयोग का उद्योग स्थापित किया जा सकता है। महुआ से शराब के बजाय पेट्रोल डीजल बनाने की तैयारी चल रही है। दुपहिया और चार पहिया वाहनो के किसी भी कलपुर्जे में बिना कोई परिवर्तन किये डीजल के साथ 20% तक महुआ का इस्तेमाल कर सकते हैं। वैज्ञानिकों की राय में डीजल में महुआ तेल के इस तरह मिलावट से इंजन की दबाव क्षमता 16:1 से बढ़कर 20:1 हो जाती है । जिसे वैज्ञानिकों ने अच्छा संकेत माना है। ईधन के रूप में उपयोग होने से महुए का मूल्य बढ़ेगा, और संग्रहण करता को रोजगार भी मिलेगा ।
महुआ वनोपज व सरकार
भारत गांवो का देश है, आजादी के 73 वर्षों बाद देश की लगभग 70 % आबादी ग्रामीण क्षेत्रों मे रहती है एवं 70% आबादी कृषि पर आधारित है। इसलिए सरकार की जिम्मेदारी बन जाती है कि वह अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए हर आवश्यक कदम उठायें। द ट्राइबल कोआपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फैडरेशन आफ इंडिया 1987 में स्थापित होकर 1988 से जनजातियों के द्वारा एकत्रित व बनाए गए वन उत्पादों को सही दामों पर बेचने के उद्देश्य से काम शुरू किया गया। ट्राइफेड का लक्ष्य जनजाति लोंगो के लिए एक संधारणीय बाजार का सृजन और व्यवसायिक अवसर पैदा कर जनजातीय लोंगो की अजीविका में सुधार लाना। ट्राइफेड द्वारा वनधन योजना के तहत उत्पादन को बढ़ाने के लिए धन इंटर्नशिप कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है। वन धन योजना मे महुआ फूल को राष्ट्रीयकृत वनोपज के रूप में सम्मिलित किया गया है। लघु वनोपज जनजातियों के लिए उल्लेखनीय आर्थिक और सामाजिक महत्व के हैं क्योंकि अनुमानत: 100 मिलियन लोग अपनी अजीविका का स्रोत लघु वनोपज के संग्रह और विपणन से प्राप्त करते हैं। -(वन अधिकार अधिनियम पर राष्ट्रीय समिति की रिपोर्ट 2011) यह कहना प्रासंगिक होगा कि ग्रामीण एवं जनजाति आबादी को सालभर महुआ पेड़ों से अतिरिक्त आय प्राप्त होती है। चूकिं महुआ भारतीय वनों का बेशकीमती एवं महत्वपूर्ण वृक्षों मे से एक है। जिससे सरकार को भी प्रतिवर्ष करोड़ों का राजस्व प्राप्त होता है ।
जंगल एवं जनजाति के संबंधों को गहराई से समझना आवश्यक है
रस व जीवनामृत से भरपूर महुए का मतलब अधकचरे ज्ञान वाले शहरियों के लिए, देशी शराब हो गया है। जिसके पीने वाले गरीब लोग होते हैं। हां ये गरीब लोग हैं जनाब लेकिन ये अमीर भूमि के गरीब लोग हैं। जिन्हे आज तक जल, जंगल, और जमीन का अधिकार नहीं मिला। अधिकार तो छोड़िये जनाब, आज रत्तीभर रायल्टी भी नसीब नही होती। जनजातीयों के जीवन एवं उनकी संस्कृति को संपूर्ण रूप से समझने के लिए जंगल एवं जनजाति के संबंधों को गहराई से समझना आवश्यक है । सभ्यता के विकास के साथ मानव लगातार स्वार्थी होता गया तथा वनों को अपना भगवान समझने के बजाय उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन समझने लगा ।
बड़े होकर एक स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर व संस्कृति से परिपूर्ण कोयतुर बन सके और जीवन निर्वाह कर सके
यह गर्व का विषय है कि म प्र राज्य में महुआ क्लोनल प्लांट्स का विकास, राज्य वन अनुसंधान संस्थान जबलपुर द्वारा किया जा रहा है। महुआ वृक्षों में रासायनिक या जैविक/गोबर खाद से फूलन तथा पुष्पन में वृद्धि का प्रशिक्षण कार्यक्रम नियमित चलाया जा रहा है। प्रकृति स्वयं मानव समुदाय को प्रकृति से जोडकर रखती है, यह वहीं स्वरोजगार के लिए प्रेरित करती है, जिसमें महुआ एवं महुआ वनोपज आज जनजातीय व ग्रामीण आबादी की जीवन रेखा के रूप मे भी है। अत: कोयापुनेम गोटुल दर्शन के माध्यम से प्रकृतिसम्मत व्यवस्था अनुसार जीवन के समस्त पहलुओं पर शिक्षा दीक्षा व अनुभव कोयापुंगारों को दी जाती है, जिससे वे बड़े होकर एक स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर व संस्कृति से परिपूर्ण कोयतुर बन सके और जीवन निर्वाह कर सके । प्रकृति इस धरती की सुंदर पाठशाला है,जो मानव को सुखी समृद्ध और स्वस्थ्य जीवन जीने की अनमोल सीख देती है, कोयापुनेमी दर्शन के अनुसार प्रकृति के सानिध्य में रहकर तथा प्रकृति के तमाम गुणों को समझकर, मानव अपने जीवन में मनचाहा सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है । (डॉ सूरज धुर्वे- कोया मंतेर - 331, 27/12/2020 )
विकास की अंधी दौड़ में आज पृथ्वी प्रदूषण से कराह रही है
प्रकृति के विनाश लीला इस कदर जारी है कि इसका परिणाम धरती के अस्तित्व के संकट के रूप में हमारे सामने आया है। विकास की अंधी दौड़ में आज पृथ्वी प्रदूषण से कराह रही है । भौतिकता के चकाचौंध में भ्रष्ट लोग आज फिर से प्रकृति की गोद में जाने की बात कर रहे हैं। शहरी लोग भले ही इस महुआ के बारे में अनभिज्ञ हों लेकिन जनजातीय समुदाय इसे प्रकृतिशक्ति (देववृक्ष) के रूप में मान्यता देती हैं व आस्था रखते हैं और यह साधना कोयापुनेम संस्कृति के प्रकृति सदृश्यता व प्रेम का बेहतरीन उदाहरण है । चहुं ओर जब विनाश का तांडव चल रहा हो, वनों को सिर्फ संसाधन के रूप मे देखा जा रहा हो, इसके विपरीत यह सुखद आश्चर्य का विषय है कि प्रकृति के संरक्षण, संतुलन, संवर्धन नियमों का पालन करने वाला समुदाय प्राचीन काल से आज तक कोयतुर जनजातियों ने जंगल से अपना संबंध यथावत बनाए रखा है ।