जनगणना कॉलम में ट्राईबल धर्म कोड के लिये देश की राजधानी दिल्ली में आदिवासियों ने भरी हुंंकार
आदिवासी समुदाय को हिंदू धर्म के कॉलम में समावेशित करके उनकी पहचान मिटाने का किया गया प्रयास
आदिवासियों की परम्परा एवं संस्कृति अन्य धर्मों से भिन्न उन्हें विलुप्त करना प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध
जनगणना में अलग से आदिवासी धर्म कोड शामिल करने की मुहिम अब पकड़ रही जोर
नई दिल्ली। गोंडवाना समय।
वर्ष 2021 की जनगणना प्रपत्र के धर्म कॉलम में भारत के समस्त आदिवासियों के लिए पृथक ट्राइबल कॉलम की मांग लेकर कल 15 मार्च 2021 को आदिवासी समुदाय के लोगों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन करके राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के नाम ज्ञापन दिया।
जनगणना प्रपत्र में ट्राईबल धर्म कोड के लिये बताई ऐतिहासिक संवैधानिक जानकारी
उक्त कार्यक्रम राष्ट्रीय आदिवासी इन्डीजीनस धर्म समन्वय समिति के बैनर तले आयोजित किया गया था। जिसमें तमाम आदिवासी समुदायों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। राष्ट्रीय आदिवासी इन्डीजीनस धर्म समन्वय समिति के मुख्य संयोजक अरविन्द उराँव ने आदिवासी समुदाय के लिए जनगणना प्रपत्र में पृथक धर्म कोड से जुड़ी ऐतिहासिक, संवैधानिक, कानूनी पहलुओं को विस्तार से साझा किया। उनके अलावा राष्ट्रीय सह संयोजक-राजकुमार कुंजाम, बिगू उराँव, विकास मिंज-टेकनिकल सेल सभी राष्ट्रीय आदिवासी-इंडीजीनस धर्म समन्वय समिति, भारत और झारखण्ड से, प्रह्लाद सिडाम, गुरू जी रावेन इनवाते-महाराष्ट्र, डाक्टर हीरा मीणा-राजस्थान से, नारायण मरकाम-छत्तीसगढ़, तेज कुमार टोप्पो- धीरज भगत-पं0 बंगाल, मनोज गोड़-उत्तर प्रदेश, अरविंद मरावी-बिहार, राजमोहन भगत, अनिल भगत-दिल्ली, भूपेन्द्र भाई चौधरी-गुजरात, बागी लकड़ा-उड़ीसा, डॉ. यालेम-अरूणाचल प्रदेश, डॉ. महाविष्णु, एसटेलिन एनती-असम आदि ने कार्यक्रम में मुख्य रूप से अपनी बातें रखी।
आठवें जनगणना में भी शिड्यूल ट्राइब्स के नाम से पृथक धर्म कॉलम मौजूद था
मुख्य संयोजक अरविन्द उराँव ने आदिवासी समुदाय के लिए जनगणना प्रपत्र में पृथक धर्म कोड के इतिहास को साझा करते हुए कार्यक्रम में मौजूद लोगों से कहा कि ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में हुई भारत की पहली जनगणना 1871-72 में ऐबरिजनल (आदिवासी) नाम से एक पृथक कॉलम आदिवासियों के लिए था। एक दशक बाद 1881-82 में हुई दूसरी जनगणना प्रपत्र में भी धामिक कोड-7 में एबोरिजिनल नाम से आदिवासियों के लिए पृथक कॉलम था। 1901-02 में हुए तीसरे जनगणना और 1911-12 में हुए चौथे जनगणना में आदिवासी समुदाय के लिए ऐनमस्ट नाम से एक अलग धर्म कॉलम था। इसके बाद साल 1921-22 में हुए पांचवे जनगणना और 1931-32 में छठवें जनगणना में ट्राइबल रिलिजन के नाम से आदिवासी समुदाय के लिए अलग धर्म कॉलम मौजूद था। 1941-42 के सातवें जनगणना में ट्राइब्स के नाम से पृथक धर्म कॉलम आदिवासी समुदाय के लिए दिया गया था। इसी तरह 1951-52 के आठवें जनगणना में भी शिड्यूल ट्राइब्स के नाम से पृथक धर्म कॉलम मौजूद था।
1961-62 में जनगणना प्रपत्र से आदिवासियों के पृथक धर्मकोड को कर दिया विलोपित
नौवें जनगणना का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि वर्ष 1961-62 की जनगणना प्रपत्र से आदिवासियों का पृथक जनगणना के धर्म कॉलम को विलोपित कर दिया गया। नौवें जनगणना में जनगणना प्रपत्र से आदिवासी समुदाय के लिए अलग धर्म कॉलम का विकल्प खत्म करके आदिवासी समुदाय की पहचान और अस्मिता पर हमला किया गया। आदिवासी समुदाय को हिंदू धर्म के कॉलम में समावेशित करके उनकी पहचान मिटाने का उपक्रम किया गया। जबकि भारत के संविधान एवं सरकारी रिपोर्ट के अनुसार आदिवासियों की परम्परा एवं संस्कृति अन्य धर्मों से भिन्न है। अतएव उन्हें विलुप्त कर देना प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध है। भारत की जनगणना रिपोर्ट सन 2011 के अनुसार आदिवासियों की संख्या पूरे भारत में लगभग 12 करोड़ है। जो देश की कुल आबादी का 9.22 प्रतिशत है। इसके बावजूद जनगणना प्रपत्र में पृथक गणना नहीं करना असंवैधानिक एवं भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के विरुद्ध है।
सिद्ध हुआ है कि आदिवासी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई बौद्ध, जैन आदि से भिन्न हैं
कार्यक्रम में आगे वक्ताओं ने वर्ष 2011 जनगणना की विसंगतियों को उजागर करते हुए बताया कि साल 2011 की जनगणना के अनुसार अन्य धर्म कॉलम में 79 लाख व्यक्ति अर्थात 0.6 प्रतिशत दर्ज़ है। जिसमें अधिकांश आदिवासी हैं और उनको पृथक अन्य धर्म कॉलम में आवंटित किया गया है। भारत की जनगणना प्रपत्र 2011 के मुताबिक 781 प्रकार के आदिवासी समुदाय के लिए अलग से जनगणना धर्म कोड आवंटित नहीं होने के कारण 2011 के जनगणना प्रपत्र में धर्म कोड में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, जैन, बौद्ध के अतिरिक्त अन्य धर्म कॉलम में 77 प्रकार के गणना जनगणना प्रपत्र में की गई। इस प्रकार आदिवासियों के द्वारा अन्य धर्म कॉलम में 83 प्रकार के धर्म अंकित किया गया। अन्य धर्म कॉलम में गणना करने से ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय संविधान, आदिवासी भाषा-संस्कृति, परम्परा, रीति-रिवाज, पूजा पद्धति, पुरातात्विक शोध, मानव वंश शास्त्र, शरीर संरचना, विज्ञान, नस्ल वंश, इतिहास इत्यादि सभी तरह से सिद्ध हुआ है कि आदिवासी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई बौद्ध, जैन आदि से भिन्न हैं।
भारत का संविधान व न्यायपालिका आदिवासी की पहचान व अस्मिता को अलग करते है परिभाषित-
कार्यक्रम में वक्ताओं ने आदिवासी समुदाय की पहचान और अस्मिता को अक्षुण्ण बनाये रखने के भारत के संविधान द्वारा आदिवासी समाज को दिये गये विशेषाधिकार और भारत के तमाम हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से आये कई फैसलों का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि कोर्ट के तमाम फैसलों में भी ये सिद्ध हुआ है कि आदिवासी समुदाय की पृथक पहचान है। राजेंद्र कुमार सिंह मुंडा बनाम ममता देवी केस में झारखंड हाईकोर्ट का 20 अगस्त 2015 का फैसला, दीपक मरावी बनाम कलाबाई केस में 05 सितंबर 2012 का मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का फैसला, मधु किश्वर और अन्य बनाम स्टेट आॅफ बिहार केस में भारत के सुप्रीम कोर्ट का 17 अप्रैल 1996 का फैसला, डॉ सूरजमणी स्टेला कुजूर बनाम दुर्गा चरण हंसदाकेस में 14 फरवरी 2015 में सुप्रीमकोर्ट का फैसला, एम. पी. अशोक कुमार के खिलाफ फैसले पर केरल हाईकोर्ट का 27 सितंबर 2012 का फैसला का जिक्र उदाहरण स्वरूप किया जा सकता है।
आदिवासियों की स्व-शासन व्यवस्था अर्थात रुढ़िवादी प्रथा को विधि बल प्राप्त है
कार्यक्रम में वक्ताओं ने भारत के संविधान के अनेक अनुच्छेदों को अलग से संदर्भित किया गया। वक्ताओं ने बताया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 (3) (क) इसमें आदिवासियों की स्व-शासन व्यवस्था अर्थात रुढ़िवादी प्रथा को विधि बल प्राप्त है। जिसके कारण आदिवासी समाज अपनी पहचान, अपनी परम्परा, धर्म-संस्कृति व मान्यताओं को बचा कर रखा है। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 (ख), 16 (4) (ए) एवं 339 (1) के अनुसार सामाजिक सुरक्षा हेतु आश्वस्त करता है। इसके बावजूद भी आदिवासी समुदाय उपेक्षित एवं कमजोर हैं।
ट्राइबल धर्म कोड पर बनी सहमति
इससे पहले भी आदिवासी समाज के लिए अलग धर्म-कोड की मांग उठती रही थी लेकिन कभी सरना तो कभी गोंडवाना नाम से जनगणना प्रपत्र में धर्मकोड की मांग करते आये आदिवासी समुदाय ने पहली बार ट्राइबल धर्म कोड पर सर्वसम्मत सहमित दी है। बता दें कि आदिवासी सरना महासभा तिलता रातु रांची झारखंड के संयोजक ने 06 अक्टूबर 2015 को भारत के महारजिस्ट्रार को पत्र भेजा गया जिसका जवाब भारत के गृहमंत्रालय के महारजिस्ट्रार कार्यालय द्वारा 12 नवंबर 2015 को पत्र भेजकर कहा गया कि देश के विभिन्न आदिवासी समुदाय को अलग अलग नामों से धर्म कोड देना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है।
जय सेवा जय जोहार जय आदिवासी
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