कोइतूर संस्कृति के दो महानायकों का निधन-गोंडवाना आंदोलन पर एक गंभीर संकट !
एक नाम हीरा सिंह मरकाम और दूसरा मोती रावण कंगाली का था
इन दोनों महा पुरुषों ने अपने जीवन को उदाहरण बना दिया है जो औरों के लिए अनुकरणीय है
गोंडवाना का यह आंदोलन बहुत ऐतिहासिक और बलिदानों का आंदोलन है
घर परिवार नौकरी छोड़कर इस जुगल जोड़ी के अधूरे सपने को पूर्ण करना होगा
भारत में कोइतूर समाज हमेशा से मुख्य धारा के समाजों जैसे हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई से अलग ही रहा क्यूंकि उसकी सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आवश्यकताएं हमेशा से मुख्य धारा के लोगों से भिन्न रही हैं। उसी अनुसार उनकी विचार धारा, अवधारणाएं और सोच भी मुख्य धारा के समुदायों से अलग रही है। कोइतूरों का सामाजिक रहन-सहन, विचारधाराएं, उनकी संस्कृति श्रमण परंपरा के समुदायों जैसे जैन, बुद्ध, चार्वाक और आजीवाकों के ज्यादा करीब रही है। इस देश में पहचान और अस्तित्व का संकट श्रामणिक लोगों पर हमेशा बना रहा है जिसमें बहुत सारे श्रामणिक समुदाय तथाकथिक मुख्य धारा में आने के कारण खत्म हो गए या कमजोर हो गए लेकिन कोया पुनेमी कोइतूरों का एक बड़ा तबका जो कई अलग अलग कबीलाई और क्षेत्रीय अस्मिताओं को प्रस्तुत करता था कभी भी मुख्य धारा में खुलकर शामिल नहीं हो पाया और अपनी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक मान्यताओं के चलते हमेशा से ही तथाकथिक मुख्य धारा के समुदायों के निशाने पर रहा है।
ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत है
खास बात है कि ये लड़ाई अपने अस्तित्व और अस्मिता दोनों को लेकर लड़ी गयी। कभी अस्मिता के मुद्दे भारी पड़ने लगते थे तो कभी अस्तित्व के लिए जूझते दिखाई देते थे। खास बात है यह विशाल जन समूह जिसे सम्मिलित रूप से कोइतूर कहा जाता है वह कोई एक समान मनुष्यों का समूह नहीं बल्कि भारत की भिन्न भिन्न कबीलाई-आदि किसान संस्कृतियों का समागम है जिनकी एक साझा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत है।
आम लोगों ने विद्रोह, विरोध और बगावत का नाम दिया
अपनी इसी संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, अतीत के गौरव, भाषा इत्यादि को लेकर यह कोइतूर वर्ग तथाकथिक मुख्य धारा के सामने हमेशा विरोधी सुर लिए खड़ा होता रहा है। जिसे आम लोगों ने विद्रोह, विरोध और बगावत का नाम दिया। वास्तविकता ये हैं किभारत का कोइतूर अपनी अस्मिता और अस्तित्व पर आए संकट के लिए खड़ा होते थे और अपने भूभाग की रक्षा के खड़े होते थे, अपने लिए जल, जंगल और जमीन के लिए खड़े होते थे जिसे तथाकथित मुख्यधारा के लोगों द्वारा बलात हड़पा जा रहा था। मुख्यधारा के धार्मिक सांस्कृतिक उन्माद और उनकी मान्यताओं का विरोध के कारण ही कोइतूरों को कभी भी इस देश में पसंद नहीं किया गया और उन्हें उनके वास्तविक नाम से न संबोधित करके अन्य कई नामों से संबोधित किया गया। कोइतूरों के सभी समूहों को जिनमें भील, मीना, सहरिया, गोंड़, कोरकू, संथाल, मुंडा, हो, न्यासी, भूमिज, बाल्मीकी, पोया,गारो, खासी, जैंतिया इत्यादि थे उन्हें यहाँ के सामंती सोच वाले राजाओं, नियंत्रकों और शासकों ने कभी एक होने का मौका नहीं दिया और जब वो कभी एक भी होने की कोशिश किए उन्हे नक्सली और देश द्रोही साबित करके जेलों में डाल दिया या मार दिया। यही सिलसिला हजारों सालों से चलता चला आ रहा है। इसलिए इस देश का सम्पूर्ण इतिहास इन्ही कोइतूरों के बगावतों की कहानियों से भरा पड़ा है।
उन्ही आंदोलनों से कई क्षेत्रीय कोइतूर जन नायकों का भारत की राजनैतिक क्षितिज पर उदय हुआ
दुर्भाग्य से कभी भी कोइतूरों की धर्म संस्कृति, कला-संगीत ,बोली भाषा, सामाजिक कर्मकांडों और धार्मिक मान्यताओं को मुख्याधारा की मीडिया और आम गैर-कोइतूरजन समुदायद्वारा मान्यता और पहचान नहीं दी गयी और हमेशा से उसे दोयम दर्जे का पिछड़ा और गंवार मानकर नजरअंदाज किया जाता रहा है। तथाकथित मुख्यधारा के समुदायों की दबदबे और उनकी नियंत्रक, प्रशासनिक और न्यायिक शक्तियों के सामने जब इन कोइतूरों को अपने राजनैतिक एकीकरण की संभावनाएं क्षीण दिखने लगी तब इंहोने अपने हक अधिकारों और न्याय के लिए विद्रोह करना शुरू कर दिया। यही कारण था कि भारत के भिन्न भिन्न भौगोलिक हिस्सों में अलग अलग कोइतूर कबीलों ने क्षेत्रीय आंदोलनों को जन्म दिया और उन्ही आंदोलनों से कई क्षेत्रीय कोइतूर जन नायकों का भारत की राजनैतिक क्षितिज पर उदय हुआ। मुख्य धारा के शासकों और प्रशासकों द्वारा इन कौमों को आदिवासी, गिरिवासी, आदिम, जंगली, गिरिजन, देशज, मूलनिवासी, अनार्य इत्यादि कहा गया लेकिन कभी भी उनकी वास्तविक पहचान से नहीं नवाजा गया और बाद की आने वाली पीढ़ियाँ उन्ही बाहरी संबोधनों और विशेषणों से अपनी पहचान को जोड़कर देखने लगीं। उदाहरण के तौर पर लोगों द्वारा विशेषण के तौर प्रयोग किए गए आदिवासी शब्द का प्रयोग धड़ल्ले से शुरू हो गया और तेजी से इस शब्द को लिखने पढ़ने और प्रशासनिक और अकादमिक कार्यों में प्रयोग किया जाने लगा और उनकी वास्तविक पहचान का नाम (संज्ञा) जहां वे खुद को कोइतूर कहते है, कहीं खो गया है।
जिसे गोंडवाना आन्दोलन के नाम से जाना समझा गया
मध्य भारत के बड़े भूभाग पर ऐसे ही एक क्षेत्रीय और अस्मिता से जुड़े आन्दोलन का आगाज हुआ जिसे गोंडवाना आन्दोलन के नाम से जाना समझा गया। अपनी अस्मिता और अस्तित्व के मुद्दे को लेकर एक बार फिर से गोंडवाना आन्दोलन का संघर्ष शुरू हुआ। जिसमें यहाँ के रहवासियों ने अपने लिए गोंडवाना लैंड की मांग की थी। गोंडवाना का यह आंदोलन बहुत ऐतिहासिक और बलिदानों का आंदोलन है जिसकी आज तक सुखद परिणित नहीं हो सकी। इस आंदोलन की शुरूवात कुछ गोंड़ राज परिवारों और जमींदारों द्वारा मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से शुरू हुई थी और 1932 में अपने हक अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक जमीनी संघर्ष शुरू हुआ था। जिसे बाद के वर्षों में राजनीतिक क्षेत्रों में कुछ सफलताएं भी मिली लेकिन कभी भी अपनी पहचान को तथाकथित मुख्यधारा में स्थापित नहीं करवा पाए और कुशल नेतृत्व और पैसे की कमी से यह आन्दोलन ताकतवर और साधन सम्पन्न राजनीतिक दलों के षड़यंत्र का शिकार बनकर कमजोर पड़ गया।
इसी आंदोलन की दो दिशाओं पर काम कर रहे थे
तत्कालीन सरकारों ने इस गोंडवाना आंदोलन की कमर तोड़ दी थी और उनके नेताओं को राजनैतिक पदों का लालच देकर, गोंडवाना आंदोलन से अलग करवाकर, अपनी अपनी पार्टियों में जगह देकर खत्म कर दिया। एक अस्तित्व और अस्मिता की बड़ी लड़ाई अब बहुत सुप्त पड़ चुकी थी और समाज में भयानक अशिक्षा , बेरोजगारी, भुकमरी, बीमारी ने कहर मचा दिया लोगों को अपनी अस्मिता छोडकर अस्तित्व (जल जंगल जमीन) के संकटों से जूझना पड़ा और गोंडवाना मूवमेंट एक अंधेरे युग में प्रवेश कर गया। अस्सी के दशक (1970-80) में एक बाद पुन: गोंडवाना आन्दोलन की आग में धुवां दिखने लगा और आग को हवा देने के लिए कुछ कोइतूर युवा सामने आये और समाज को जोड़कर इस आंदोलन को पुनर्जीवित करने, पुनर्स्थापित करने और उसको सही राजनैतिक दिशा देने के लिए कृतसंकल्प हुए। इन लोगों में से ही एक नाम हीरा सिंह मरकाम और दूसरा मोती रावण कंगाली का था । जो अलग अलग जगहों पर इसी आंदोलन की दो दिशाओं पर काम कर रहे थे।
दोनों में एक आपसी समझ बन चुकी थी
जहां एक ओर दादा हीरा सिंह मरकाम का रुझान राजनीति की तरफ था तो वहीं दादा मोती रावण कंगाली धर्म संस्कृति को स्थापित करने में लगे थे। दोनों एक दूसरे के करीब आए और दोनों को एक दूसरे की मदद की जरूरत पड़ी। चूंकि राजनीति में दादा हीरा सिंह मरकाम सफल हो चुके थे और संयुक्त मध्य प्रदेशके पाली तानाखार सीट से 1985-86 में भाजपा के टिकट से चुनाव लड़कर पहली बार मध्य प्रदेश विधान सभा में पहुंच चुके थे। दादा हीरा सिंह मरकाम एक प्राइमरी स्कूल के शिक्षक से विधायक बन चुके थे और काफी प्रसिद्धि भी पा चुके थे लेकिन उस समय तक दादा मोती रावण कंगाली चुपचाप अपने सांस्कृतिक इतिहास, भाषा संस्कृति, धर्म को समझने में लगे हुए थे और बाहरी दुनिया में उतने लोकप्रिय नहीं थे और इसलिए उनको बहुत कम लोग जानते थे। बाद में दादा हीरा सिंह मरकाम ने वर्ष 1991 में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की नींव डाली और दादा मोती रावण कंगाली ने परदे के पीछे से उन्हें सहयोग देने लगे। दादा मोती रावण कंगाली सरकारी नौकरी में थे इसलिए वे राजनीतिक रूप से बहुत सक्रिय नहीं थे लेकिन परदे के पीछे से हीरा सिंह मरकाम को सहयोग देते हुए सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना को जाग्रत करने का कार्य कर रहे थे। दोनों में एक आपसी समझ बन चुकी थी कि बिना धर्म संस्कृति के सामाजिक चेतना नहीं आएगी और बिना सामाजिक एकता के राजनैतिक चुनाव जीता नहीं जा सकेगा।
गोंडवाना आंदोलन का पुनर्जागरण हो रहा था
ऐसे ही अन्य कई नाम थे जिनके बारे में यहाँ बताना संभव नहीं है जो गोंडवाना आन्दोलन को आर्थिक और वैचारिक रूप से मदद कर रहे थे। धीरे धीरे दादा मोती रावण कंगाली और दादा हीरा सिंह मरकाम एक दूसरे की जरूरत और पूरक भी बन गए और बड़ी तेजी से मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में सुप्त हो चुके गोंडवाना आंदोलन का पुनर्जागरण हो रहा था । दोनों ने मिलकर कार्य किया और दोनों के काम करने के ढंग को देखकर लोगों को एक नए युग का सूत्रपात होने की उम्मीद जगी। लोगों को लगने लगा अब उनकी अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई फिर से लड़ी जा सकेगी और वे भी एक सम्मानित नागरिक की तरह इस देश में जी सकेंगे।
इसी जोड़ी का सम्मलित और ईमानदार प्रयास रहा है
दादा मोती रावण कंगाली साहित्य सृजन और संस्कृतिक और धार्मिक चीजों पर कार्य करने लगे वहीं दादा हीरा सिंह मरकाम सामाजिक और राजनैतिक तौर पर सक्रिय हुए। राजनीति हमेशा धर्म से पहले खड़ी हो जाती है क्यूंकी धर्म संस्कृति के कार्य में बहुत समय लगता है। दोनों ने गोंडवाना में एक नए गोंडवाना आंदोलन को खड़ा कर दिया जो लाल शाह श्याम और साथियों के आंदोलन से बिलकुल अलग था । इस जोड़ी को हीरा-मोती की जोड़ी के विशेष नाम से जाना जाता है। दोनों की सफलता के पीछे इसी जोड़ी का सम्मलित और ईमानदार प्रयास रहा है। दुर्भाग्य से 2015 में दादा मोती रावण की अकाल मृत्यु से ये जोड़ी टूट गयी और दादा हीरा सिंह अकेले पड़ गए और काफी निराश हो चुके थे जो उन्होंने मेरे इंटरव्यू में भी मुझे बताई थी।
लेकिन मोती रावण का साथ छूटना उनके लिए एक सदमे से कम न था
वैसे कहने को तो बहुत सारे लोग दादा हीरा सिंह के आसपास थे लेकिन मोती रावण का साथ छूटना उनके लिए एक सदमे से कम न था। क्यूंकि वे जानते थे कि धर्म संस्कृति के आधार के बिना राजनीति की इमारत नहीं खड़ी की जा सकती है। इसलिए अपने अंतिम दिनों में दादा हीरा सिंह मरकाम ने धर्म संस्कृति को बढ़ाने के लिए धार्मिक मंचों पर आना जाना तेज कर दिया था। उन्होंने समाज को आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और राजनैतिक रूप से सक्षम होने के लिए कई विचार दिए जिनमें उनका एक मुट्ठी चावल का नारा बहुत प्रसिद्द हुआ था। अपनी पारंपरिक शिक्षा और संस्कृति के प्रोत्साहन के लिए उन्होने अपने अंतिम दिनों में गणतंत्र गोटुल की स्थापना की बात रखी थी। वे चाहते थे कि समाज पहले अपने धर्म संस्कृति को जाने और उसका पालन करे क्यूंकि राजनीति तो उसी पर निर्भर करती है। अपने दम पर वर्ष 1993 में तीन लोगों को गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के नाम पर मध्य प्रदेश की विधान सभा तक पहुंचाना भी दादा हीरा सिंह मरकाम की उपलब्धियों में से एक है।
दादा हीरा सिंह मरकाम जो बूढ़े जरूर हो गए थे लेकिन समाज के साथ दगाबाजी करने के पक्ष में नहीं थे
दादा कंगाली के असमय छोड़कर चले जाने पर उनका पास कोई अच्छा सलाहकार नहीं रहा और वे कुछ राजनीतिक और धनलोलुप छद्म समाज सेवियों से घिर गए लेकिन दादा उनकी व्यवहार और नियत को अच्छी तरह समझ रहे थे और इसीलिए उनको कभी भी गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की अच्छी छवि को खराब करने का मौका नहीं दिए। जल्दी ही अपनी अवसरवादिता, लोलुपता और पार्टी में अपनी दाल न गलती देख कर कई नेता पार्टी छोड़कर भाग गए और अन्य पार्टियों के दलाल बन गए। इस तरह दूसरे स्तर के कुछ नेता अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के कारण दादा हीरा सिंह मरकाम का साथ छोड़कर चले गए लेकिन सब राजनीति की आँधी में तिनके की तरह उड़ गए अगर कोई बचा था तो वे थे दादा हीरा सिंह मरकाम जो बूढ़े जरूर हो गए थे लेकिन समाज के साथ दगाबाजी करने के पक्ष में नहीं थे। यही कारण था कि अंत तक वे गोंडवाना के कोइतूरों के लिए धर्म संस्कृति की जरूरत महसूस करते रहे और सामाजिक उत्थान की बातें करते रहें। उनका लक्ष्य मात्र राजनीति होता तो वो जाने कब का राजनीति पद पाकर किसी भी पार्टी से राजनीति कर सकते थे और मनचाही उचाइयाँ हासिल कर लेते लेकिन उनका लक्ष्य गोंडवाना का समग्र और चतुमुर्खी विकास करना था इसलिए उन्होने गोंडवाना समग्र क्रांति आन्दोलन की शुरूवात की थी और उसके लिए अंतिम सांस तक लड़ते रहे।
इस बात का दु:ख उन्हें अंतिम साँस तक रहा
ऐसा नहीं था की दादा हीरा सिंह मरकाम का जीवन बड़ा आसान और कंटकरहित था उन्हें बाहरी लोगों से ज्यादा अपने ही पार्टी के पदलोलुप और भ्रष्ट नेताओं से लड़ना पड़ा था और जिसकी कीमत भी उन्हे चुकानी पड़ी और वे बाद के चुनाओं में कभी भी राजनीतिक सफलता हासिल नहीं कर सके। भारत के कोइतूरों के लिए धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक,शैक्षणिक लड़ाई लड़ते हुए राजनीतिक लड़ाई जारी रखने वाले वे एकमात्र नेता थे जिन्हें उनके अपने साथी ही नहीं समझ पाये। जिस समाज के लिए दादा हीरा सिंह ने अपने को कुर्बान कर दिया वह समाज भी राजनैतिक रूप से उनके साथ कभी खड़ा नहीं हुआ इस बात का दु:ख उन्हें अंतिम साँस तक रहा। बाद के वर्षों में जब उनकी कर्मठता और विश्वनीयता को लोगों ने समझा तब बड़ी तेजी से उनका साथ देने लगी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अपने विश्वनीय साथी के चले जाने से वे बहुत अकेले पड़ गए थे संयोग देखिये वर्ष 2015 अक्टूबर महीने की 30 तारिख को दादा मोती रावण कंगाली का निधन होता है और उसके ठीक पांच साल बाद ही अक्तूबर 28, वर्ष 2020 कोउनके जोड़ीदार दादा हीरा सिंह मरकाम भी पंचतत्व में विलीन हो जाते हैं। इस तरह से गोंडवाना में हीरा मोती के नाम से मशहूर जोड़ी का अंत हो जाता है और आज कोई भी ऐसा बड़ा नेतृत्व नहीं दिखाई दे रहा जो गोंडवाना आंदोलन में आए इस बड़े खालीपन को भर सके।
लेकिन जो बीज उन्होने बोये थे आज वो पौधे बन गए है
दादा मरकाम का जीवन व्यर्थ नहीं गया लोग भले ही आप उनको राजनीतिक रूप से असफल माने लेकिन जो बीज उन्होने बोये थे आज वो पौधे बन गए हैं और धीरे धीरे ही सही दिशा में वृद्धि कर रहे हैं। इसका असर अगले 10 सालों में पूरी तरफ दिखने लगेगा जब ये पौधे पेड़ का विशाल रूप लेंगे और कोइतूर समाज को फल, फूल और छाया प्रदान करेंगे। ऐसे महायोगी और कर्मठ लोग सदियों में पैदा होते हैं जो अपने समाज और संस्कृति को बचाने के लिए खुद की सुख सुविधा और खुद की इच्छाओं की तिलांजलि दे देते हैं। दादा मोती रावण कंगाली और दादा हीरा सिंह मरकाम कोइतूर धर्म संस्कृति के क्षितिज पर ऐसे चमकते सितारे हैं जो हमें सदियों तक अंधेरे में राह दिखाते रहेंगे। इन दोनों महाविभूतियों के योगदान, समर्पण और बलिदान को यह कृतज्ञ राष्ट्र कभी नहीं भूल सकेगा और वे अपने करोड़ों चाहने वालों के दिलों में राज करते रहेंगे । आज गोंडवाना में इन्हीं दोनों की बदौलत लाखों ऐसे युवा खड़े हो गए हैं जो अपनी धर्म संस्कृति, इतिहास भाषा को बचाने के लिए दृढ़ संकल्प हैं और रात दिन समाज को दूसरी संस्कृतियों के चंगुल से निकालने के प्रयास में लगे हुए हैं।
अपना पूरा का पूरा जीवन न्योछावर कर दिये
दोनों महारथियों ने ब्राह्मण वाद और सामंतवाद और उनकी मान्यताओं को हमेशा से नकारा था और पूरी जिंदगी ब्राह्मणवाद को नकारने साथ साथ अपनी महान कोया पुनेमी धर्म संस्कृति की सुरक्षा और संवर्धन के लिए भी काम करते रहे। इन दोनों महा पुरुषों ने अपने जीवन को उदाहरण बना दिया है जो औरों के लिए अनुकरणीय है। उन्होने मात्र दूसरी संस्कृतों के अनावश्यक हस्तक्षेप का विरोध ही नहीं किया बल्कि अपने धर्म संस्कृति की अवधारणा को भी समाज के सामने प्रस्तुत किया और अपनी धर्म संस्कृति को पुनर्जीवित और पुनर्निर्मित करने के लिए समय दिया। आज भारत के 7 राज्यों में गोंडवाना के प्रति और अपनी कोइतूर संस्कृति और कोया पूनेम के प्रति जो अलख इन दोनों पुरखों ने जगाई थी वो काबिले तारीफ है। कोइतूर समाज के लोगों में अपने सम्मान, पहचान, अधिकार के प्रति जो भूख पैदा हुई है वो आग इन्हीं दोनों के द्वारा लगाई गयी थी। समाज के लोगों के दिलों में गोंड, गोंड़ी, गोंडवाना के प्रति प्यार इन्होने ने ही पैदा किया था। आज ये लड़ाई जितनी आसान दिख रही है वास्तव में उतनी आसान नहीं थी इन दोनों महान सपूतों के साथ साथ सैकड़ों और भी ऐसे नायक थे जो इस कार्य में जुटे रहे और अपनी कोइतूर धर्म संस्कृति की रक्षा के लिए अपना पूरा का पूरा जीवन न्योछावर कर दिये।
गोंडवाना की एक महान जोड़ी बनकर उभरी है
हीरा-मोती के नाम से मशहूर इस जोड़ी ने सदियों से चली आ रही जोड़ियों की सफलता की कहानियों को जीवंत कर दिया और गोंडवाना की एक महान जोड़ी बनकर उभरी है। दुनिया गवाह है जब जब दो लोगों ने समर्पित रूप से साथ मिलकर एक लक्ष्य के लिए साथ साथ काम किया है वे जोड़ियाँ अमर हो गयी है । चाहे वे जोड़ियाँ राजनीति में रही हों, गायन या संगीत में रहीं हों, लेखन में रही हों, व्यवसाय या चिकित्सा आदि अन्य क्षेत्रों में रही हों। इस जोड़ी के चले जाने के बाद आज फिर से गोंडवाना आंदोलन को एक नयी जोड़ी की सख्त आवश्यकता है जो भारत की सबसे प्राचीन कोया पुनेमी व्यवस्था और कोइतूर धर्म संस्कृति की ध्वजा को लहरा सके और करोड़ों दबे कुचले, हासिए पर बैठे समाज को नई उम्मीद, सही दिशा और नया लक्ष्य दे सके। ऐसा नहीं है कि इन दोनों सपूतों ने अपने देखे हुए सपनों को अपने जीते जी साकार कर लिया और जो सोचा था वो पूर्ण हो गया, उनके सपने साकार होने से पहले ही वे हमें छोड़कर चल बसे हैं।
उन्हीं से प्रेरणा लेकर उनके सपनों को साकार करने में जुट जाएँ
अब इस नयी युवा पीढ़ी का दायित्व है कि अब वे आगे आंयें और इन दोनों की कुर्बानियों को बेकार नहीं जाने दें और उन्हीं से प्रेरणा लेकर उनके सपनों को साकार करने में जुट जाएँ। हमें इन महापुरुषों से सीखना होगा और उनके बताये रास्ते पर चलना होगा। अगर आप अब भी दूसरे के धर्म संस्कृति की बुराई करते रहेंगे और अपनी अशिक्षा,गरीबी, और विपन्नता के लिए दूसरे को कोसते रहेंगे तो कई पीढ़ियों के बाद भी अपने हालात नहीं बदल पाएंगे। आपको अब हर हाल में निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा बनना होगा दूसरे की बुराई छोड़कर खुद को अपनी धर्म संस्कृति के निर्माण कार्य में झोकना पड़ेगा। अब आपको अपने समाज को एक करना होगा, उनके लिए धर्म संस्कृति को मजबूत करना पड़ेगा। अपने समाज के लोगों को फिर से तैयार करना होगा जिससे वे पुन: अपने हक अधिकार को प्राप्त करने के लिए एक साथ खड़े हो सकें और तथाकथिक मुख्यधारा के लोगों को बता सकें कि हम अपने प्राचीन गौरवशाली धर्म संस्कृति की रक्षा खुद कर सकते हैं और उसके वाहक भी बन सकते हैं।
लोगों को समझना होगा कि नींव ही महल नहीं है
दादा मोती रावण कंगाली कहा करते थे अगर आप हमारी बनाई गयी नींव पर रोज एक ईंट भी रखते जाओगे तो तो आने वाले दिनों में आपको कोइतूर धर्म संस्कृति का महल नसीब होगा और अगर उसी को अंतिम सत्य मानकर बैठ जाओगों तो मरोगे क्यूंकि अभी हमने बस नींव बनाई है अभी महल नहीं बना है लेकिन दुर्भाग्य देखिये आज कई ऐसे लोग हैं जो अपने को तो दादा मोती रावण कंगाली का प्रशंसक, शिष्य और भक्त बताते हैं लेकिन उनकी बनायी गयी नींव पर एक भी ईंट नहीं जोड़ते। ऐसे मूर्ख पाखंडियों और स्वार्थी लोगों को समझना होगा कि नींव ही महल नहीं है। जो दादा मोती रावण कंगाली की बनाई गयी नींव पर चादर ओड़कर सो गए हैं और समझ लिए हैं कोइतूर धर्म संस्कृत का महल बन चुका है। वास्तव में वे मुगालते में हैं और दादा के कार्य को ही अंतिम मानकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ बैठे हैं। यह आलसी और नालायक प्रशंसकों की नासमझी है। जो लोग ये कहते हैं कि दादा मोती रावण कंगाली और दादा हीरा सिंह मरकाम ने जो कर दिया वही अंतिम है अब उसके आगे कुछ नहीं करना है और बस उसी की रक्षा करते रहना है तो मैं आपको बता दूँ ऐसे लोग काहिल हैं जो आगे उस कार्य को बढ़ाने में मेहनत नहीं करना चाहते और पूर्वजों के किये गए काम को ही दुहराते रहते हैं। अगर आज वे यह स्वीकार कर लेते हैं की इन महान विभूतियों का सपना अभी पूरा नहीं हुआ है और अभी वो उनके सपनों का महल पूर्ण नहीं हुआ है तो उन्हें उसकी दीवाले खड़ी करनी होगीं, छत ढालनी होगी, प्लास्टर और रंग रोगन करना होगा, और उसके लिए समय देना होगा, कार्य करना होगा, मेहनत करनी होगी और घर परिवार नौकरी छोडकर इस जुगल जोड़ी के अधूरे सपने को पूर्ण करना होगा। अपनी नाकामी को छुपने के लिए दादा के काम को पूर्ण मान लेने में उनका खुद का स्वार्थ है न की समाज का। आइये आज इन दोनों महा शक्तियों यानि हीरा मोती की जोड़ी को सब मिलकर अंतिम विदाई देते हैं और उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लेते हैं। दोनों पुरखो और सियान शक्तियों और बुढ़ाल पेन को अपना श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुएसादर सेवा जोहार करते हैं।