सरकारी आत्मनिर्भरता का संदेश मात्र छलावा, गांव को ग्रामवासी स्वयं आत्मनिर्भर बनायें
वहीं से गांव की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना शुरू हुआ टूटना
गांव का समूह एक दूसरे के उत्पाद की खपत वस्तु विनिमय से करता था
इसी खाली स्थान में धीरे धीरे व्यापारी या बिचौलिया का प्रवेश हुआ
आपके विचार-गोंडवाना समय अखबार
लेखक-गुलजार सिंह मरकाम
राष्ट्रीय संयोजक गोंडवाना समग्र क्रांति आंदोलन
पुराने समय के आत्मनिर्भर गांव की व्यवस्था को निर्भर बनाने के लिए इस देश में लगातार कुछ ना कुछ षड्यंत्र होता रहा है। जिसके कारण स्वावलंबी और आत्मनिर्भर गांव आज पूर्णतया शहरों पर आश्रित हो गया। कुशल कामगार को पूंजीपति उद्योगपति के यहां नौकर बनना पड़ रहा है, जबकि गांव की मूलभूत आवश्यकताओं का निर्माण विनिर्माण गांव के ही कारीगरों यथा लोहार, सुनार, बुनकर, मोची, बंशकार कसार, सुतार, बढ़ई से लेकर कुम्हार, राजमिस्त्री, तेली, तमोली, पंसारी, राजभर, भाड़भूजा, काछी, किसान, गोवारी, खैरवार जैसे अनेक हुनरमंद लोग जो अपने हुनर से श्रम से गांव को स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनाते रहे हैं।
जिसने वस्तु की जगह टकसाली रुपये का वर्चस्व बढ़ा दिया
तत्कालीन कर्मकार समूह कालांतर में जातियों का रूप धारण कर लिया, इसके पीछे जो षड्यंत्र रचा गया। वहीं से गांव की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना टूटना शुरू हुआ। इस ताना बाना के टूटने से गांव का समूह एक दूसरे के उत्पाद की खपत वस्तु विनिमय से करता था। धीरे धीरे उनके बीच खालीपन आ गया और इसी खाली स्थान में धीरे धीरे व्यापारी या बिचौलिया का प्रवेश हुआ। जिसने वस्तु की जगह टकसाली रुपये का वर्चस्व बढ़ा दिया ।
पूंजीपतियों उद्योगपतियों की नौकरी करने के लिए मजबूर हो गया
अब वह उत्पादक और उपभोक्ता के बीच लाभांश/कमीशनखोर बन गया। अब वस्तु का कृत्रिम अभाव पैदा कर वस्तु को महंगे दामों में बेचा जाने लगा। इसी तरह क्रमश: पूंजीवाद की स्थापना होने लगी। पूंजीपति ने गांव के कारीगरों के द्वारा किए गए उत्पाद को बड़े बड़े उद्योगों में उत्पादित करने लगा। इस तरह गांव का कारीगर मिस्त्री और किसानों के अनाज की प्रोसेसिंग भी उद्योगों के माध्यम से होने लगा। इस तरह गांव निर्भर होने लगा। अब यह स्थिति है की तेल, साबुन, कृषि औजार यहां तक कि बर्तन भांडे भी वह उद्योग के बीच में बने बिचौलियों के कारण गांव का कारीगर मिस्त्री उत्पादक बेरोजगार हो गया। उसे अब स्वयं के धंधा करने के बजाए शहरों में जाकर पूंजीपतियों उद्योगपतियों की नौकरी करने के लिए मजबूर हो गया, यानी पूर्णतया एक स्वाबलंबी आत्मनिर्भर गांव निर्भर हो गया।
अन्यथा निर्भरता जन गण को गांव को पूरी तरह गुलाम बना देगी
यदि गांव को निर्भरता से मुक्त करना है तो यह वक्त सुनहरा है गांव के कारीगर, मिस्त्री या हुनरमंद अब तक शहरों में जाकर उद्योगों में नौकरी करता था वापस हुआ है। उसे अपने गांव को आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनाने के लिए जो कुछ वहां से सीख कर आया। उसे छोटे स्तर पर ही सही अपना स्वयं का रोजगार खड़ा करना होगा। जितने भी गांव की आवश्यकता वाली वस्तुओं का निर्माण विनिर्माण करना होगा। गांव के पुरातन स्वावलंबी मार्ग को अपनाना होगा अन्यथा निर्भरता जन गण को गांव को पूरी तरह गुलाम बना देगी।