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दिल्ली और भोपाल से सिर्फ बयान, बयान और बयान !

दिल्ली और भोपाल से सिर्फ बयान, बयान और बयान !

हाइवेज पर उतरा भारत, जितने लोग उतनी व्यथाएं

लेखक-
रजनीश जैन,
सागर, मध्य प्रदेश 
ये सभी दृश्य मेरे शहर सागर (मप्र) से गुजरने वाले हाईवेज के हैं। ज्यादातर मेरे कैमरे से रिकार्ड किए हुए। हजारों ट्रक, दूसरे राज्यों के आटोरिक्शा, पिकअप, हाथ ठेले, साइकल और हजारों की तादाद में पैदल। ध्यान रखिए पुलिस ही है जो हाइवेज पर जितना बन पड़ रहा है, तो वाहनों में बैठा रही है।
         लोग खाना दे रहे हैं। पर आप क्या कर रहे हैं आका। दिल्ली और भोपाल से सिर्फ बयान बयान और बयान! मजदूरों के लिए राहत का एक कतरा भी नहीं। कलेक्टर, एसपी, राजस्व अमलों की जिला स्तरीय सीमाएं और विवशताएं मजदूरों के बाबत क्या हैं यह आंखों से देख कर पता चलता है। तो यह खयाल छोड़ दीजिए कि मेरी धारणा सोशल मीडिया की आईटीसेल जनित पोस्टों से बनी है। 
...तकलीफ बेहद विकट है और आप मुंह में गमछा बांधे सोशल डिस्टेंसिंग वाली केबिनेट मीटिंगें कर रहे हैं। धरातल पर क्या हो रहा है यह देखने सुनने वाले आंख-नाक-कान लाकडाऊन की ओट में अपने दड़बों में छिपे बैठे हैं। ... आपके महानगरीय भारत से वापस लौट रहे देहाती भारतीयों की तकलीफ कोरोना के भय को कभी का त्याग चुकी है। वे अब मरना भी अपने घर पर ही चाहते हैं। आप से विश्वास उठ चुका है उनका।

क्या उन्हें बीमार होने और होकर स्वस्थ होने का हक नहीं है

अब प्रवासी मजदूरों पर पाजीटिव होने को लेकर लांछन लगाया जाएगा। जैसे कि वे आर्थिकीय वर्गभेद की परिभाषा वाले ''जमाती'' हों। ...ऐसा क्यों ? क्या वे अपराधी हैं ? क्या उन्हें बीमार होने और होकर स्वस्थ होने का हक नहीं है। वे सारे गांव, कस्बे और छोटे शहर क्या किसी की बपौती हैं, जिनसे पलायन करके जाने के बाद उनका वहां की जमीन और आबोहवा पर हक नहीं रहा।
       
क्यों, हम महामारी के खौफ के तले दब कर खुद बचना और दूसरे का मरना चाह रहे हैं!? धैर्य और मजबूती से यह क्यों नहीं समझते कि अब हमें कोरोना के साथ रहना सीखना होगा। इस मिश्रित समाज में बिना वैमनस्यता फैलाए बीमारी की सतत उपस्थिति से आगाह होकर जीना सीखना होगा।

छाया में मुंह ढांपे पिकनिक की मानसिकता से ड्यूटी पर बैठे हैं

प्रशासनिक अमले की खुदगर्जी देखने बहेरिया और वहां के फोरलाइन चौराहे तक गया था। जैसा सोचा था उससे गया बीता पाया। निचले अमले में बहुतायत मक्कारों की है। फौरी तौर पर सब बचना चाह रहे हैं। मजदूरों से सीधे बात करने की पहल कोई नहीं कर रहा। छाया में मुंह ढांपे पिकनिक की मानसिकता से ड्यूटी पर बैठे हैं।              कोई साइनबोर्ड नहीं जिससे पता चले कि अमुक प्रकार की मदद करने वाले यहां बैठे हैं। सभी प्रकार की मदद कर सकने वाले अधिकार संपन्न कर्मचारी बैठाए गए हैं पर मजाल की खुद खड़े होकर कोई मजदूरों से पूछ बैठे कि आइए, बताइए क्या परेशानी है। 

एक कलेक्टर यदि सच्चे मन और श्रम से काम कर रही है तो वह अकेले कितने मोर्चे संभाले

पैदल वालों से खाना पूछा जाता है, पानी के लिए नहीं। इसलिए कि एक टैंकर खड़ा है जिसके नलके से सतत लीक हो रहे पानी की पतली धार से पानी भर कर पी सकता है।
आप दस मिनट खड़े रहिए तो पचास मोटर बाइक, तीन चार ट्रक, आटो रिक्शा, एक दो बसें, कुछ पिकअप आपके सामने से निकल जाते हैं।
सब के सब मजदूरों से लदे हुए। दोपहर की खुली धूप में ट्रक की छत की तिरपाल पर बैठे हुए चालीस पचास मजदूर, ट्रक कुकिंग गैस के सिलिंडरों पर बैठे दर्जनों मजदूर, मुंबई से आटो रिक्शा पर चल पड़े मजदूर, साइकल पर गृहस्थी लादे मजदूर। लुटते पिटते, फोरलाइन पर ट्रकों से उतरते पैदल मजदूर।
             जितने मजदूर उतनी व्यथाएं। सुन-सुन कर गला भर आता है  । टुकड़ों में चल रही यात्राएं। पुलिस मदद कर देती है ट्रकों वाहनों में बैठाने में लेकिन जो अधिकार संपन्न राजस्व अमला लगाया गया है, इस काम में वह जिम्मेदारी उठाने तैयार नहीं। उनकी मक्कारी ड्यूटी लगवाने/कटवाने के खेल से आरंभ है। साफ दिखता है कि अमले का जोर सहायता करना नहीं खुद को मजदूरों से बचा लेना है। एक कलेक्टर यदि सच्चे मन और श्रम से काम कर रही है तो वह अकेले कितने मोर्चे संभाले। हर नाके चौक चौराहे पर तो वह खड़ी नहीं हो सकती।

वैसा ही व्यवहार आपके जिले के मजदूरों के साथ अन्य जिलों के आउटर्स पर हो रहा है

सभी जिला प्रशासनों व स्थानीय जनप्रतिनिधियों को यह सूत्र याद रखना चाहिए कि बायपास सड़कों से निकल रहे मजदूरों के साथ जैसा व्यवहार आपके जिले में हो रहा है वैसा ही व्यवहार आपके जिले के मजदूरों के साथ अन्य जिलों के आउटर्स पर हो रहा है।
           
यह भी एक तरह की चैन है जो इसलिए बदस्तूर बनी हुई है क्योंकि कोई भी जिला आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेने तैयार नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों ने प्रवासी मजदूरों के हक में बहत से सुनहरे आदेश जारी किए हैं लेकिन किसी भी जिले में इनका जिम्मेदारी से पालन हो रहा होता तो सभी जगहों से एक तरह की खबरें नहीं आ रही होतीं।

वोट तय करते समय अपने साथ हुए इस व्यवहार को भूलेंगे नहीं

यह अमानवीय लग सकता है लेकिन समझने जैसा समीकरण है कि यदि कोई प्रवासी मजदूर कोरोना पाजीटिव है भी तो लंबे रास्ते का तकलीफ देह सफर और मन:स्थिति उसकी इम्यूनिटी इतनी तोड़ देंगे कि शायद ही वह मजदूर जीवित अवस्था में गंतव्य तक पहुंचे।
               ...तो क्या इसे भी एक क्रूर रणनीति ही समझा जाए कि हाइवे खुद भी कोरोना का समाधान करता चल रहे हैं। दूसरे शब्दों में मजदूर और उसके परिवार का जीवन एक संख्या भर है जिसे सिर्फ आंकड़ा बन जाने की नियति तक पहुंचना है।
             इस भौतिकवादी लोकतंत्र में ''सर्वाइकल आफ द फिटेस्ट'' बड़ी ही बनियाटिक चालाकी से क्रियान्वित हो रहा है और ध्यान रहे कि यह रवैया किसी एक सरकार या दल विशेष का नहीं है, दरसल यह हमारी पूरी समाज का रवैया है। या कमोबेश हमारा देशज चरित्र ही यह है। लेकिन यदि ऐसा है तो फिर हमें याद रखना चाहिए कि वाम विचारधारा के फलने-फूलने योग्य जमीन भी हमेशा मौजूद रहेगी।
         यह करोड़ों मजदूर और उनके परिजन भविष्य में देश के जिस भी जिला तालुके की वोटर लिस्ट में दर्ज होंगे, वोट तय करते समय अपने साथ हुए इस व्यवहार को भूलेंगे नहीं।

लेखक-
(रजनीश जैन)
सागर मध्य प्रदेश 

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1 Comments
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  1. सटीक यथार्थ।
    वरना आजकल मीडिया में भी दलालों का कब्जा है जो वास्तविकता न दिखाकर मनगढंत परिदृश्य प्रदर्शित करते रहते है।
    हार्दिक साधुवाद!

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