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रोज बेचता हूं मेहनत और, मैं भी हंसता रोता हूं।

रोज बेचता हूं मेहनत और, मैं भी हंसता रोता हूं।

कौन सुनेगा, किसे सुनाऊं, मेरी अपनी दास्तां।
सन्नाटे में खोज रहा हूं, जीवन जीने का रास्ता।
किससे भीख दया की मांगू, किसके आगे शीश झुकाऊं।
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा में, या फिर चर्च की घंटी बजाऊं।

पेट की आग बुझाने खातिर, पत्थर की मूरत सा खड़ा हूं।
खून-पसीने की कीमत पर, मिट जाने के लिए अड़ा हूं।
श्रम बल से हमने रच डाले, दुनिया के साधन सारे।
वक्त की लाचारी के आगे, भटक रहे हैं मारे-मारे।

मेरे हाथ की कर्म लकीरें, भला कौन पढ़ पायेगा।
उद्यमशील मशीनीयुग में, क्या भाग्य बदल जायेगा।
माटी की खुशबू को हरदम, श्रम साधना में पिरोता है।
मजदूर की आंखों में कब, दु:ख का पानी होता है।

कौन हरा सकता है मुझको, किसकी ऐसी मजाल है।
शानो-शौकत के चक्कर सब, मायाबी भ्रमजाल है।
घर आंगन परिवार कबीला, यही हमारी दुनिया है।
कौन पड़े तेरे-मेरे में, सब बढ़ा रही हैं दूरियां।

आज मिला तो भी हम खुश हैं, नहीं मिला कोई बात नहीं।
गांव गली में अमन-चैन है, सबके बस की बात नहीं।
रोज बेचता हूं मेहनत और, मैं भी हंसता रोता हूं।
बहुत चैन से धरती के, सीने से लिपटकर सोता हूं।

कवि-अलाल जी. देहाती

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