प्रकृति चेतना
लूट रहा सदियों से मानव, प्राकृतिक वरदानों को।मूढ़ मंदमति मिटा रहा, जीवन के ठौर ठिकानों को।
दिन दूने और रात चौगुने, लीला विनाश जारी है।
सुलभ मुक्त संसाधन का, होना चाहिए आभारी हैं।
चीर रहा धरती का सीना, नव विकास के नाम से।
रोज सतत निर्बाध जुटा है, अनबूझे अंजाम से।
जल जंगल भी शेष नहीं है, स्वार्थ भरी अभिलाषा से।
सिंहर उठी कुदरत कुंठित हो, मनुज की नई-नई आशा से।
कहीं सुदूर शिखर भूधर और, बची नहीं वनमाला है।
वर्तमान भौतिक चाहत ने, ढंग बदल डाला है।
नदी झील का पानी जहर है, और न शेष समीर है।
बढ़ती आबादी की पीड़ा, शोर बहुत गंभीर है।
जगा रही है सृष्टि चेतना, भाषाहीन इशारों से।
अब मुझको भी मुक्ति चाहिए, सारे अत्याचारों से।
अगणित सालों से झेलें है, मन संतोषी झमेलों को।
दिन-छिन क्षमता निर्बल हो गई, सुख चाहो तुम अलबेलों के।
क्षण-भंगुर आनंद विश्व का, पर्दा गिरने वाला है।
मौन निहार रहा है बेवश, रचना रचने वाला है।
अहा! प्रकृति के ज्ञान श्रेष्ठ, कितना तू उपकारी है।
मानुषजन के भावी कल की, तुझपर जिम्मेदारी है।