दादा मोती रावण कंगाली जी, कोइतूर परंपरा के सजग प्रहरी और सशक्त हस्ताक्षर
चाहे वह कोई भी कोयामूरी दीप का मानव हो वो सभी कोइतूर ही हैं
जिस परिस्थिति व काल खंड में कंगाली दादा ने कोया पुनेम लेखन का कार्य किया वो काबिले-तारीफ है
वे परिपक्व दर्शनशास्त्री, भाषा वैज्ञानिक, चिंतक, विचारक, इतिहासकार भी थे
हमेशा मुसकुराते रहने वाले स्वभाव के कारण लोग उनके दीवाने बन जाते थे
उनकी उपलब्धि को भारत सरकार सहित विश्व के तमाम भाषा वैज्ञानिक कोई तवज्जो नहीं दे रहे
कंगाली की जयंति पर विशेष लेख
डॉ सूर्या बाली सूरज धुर्वे
इस नश्वर संसार में रोज अनगिनत जीव जन्म लेते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। उनमें से मानव जीवन प्रकृति की अनुपम भेंट होती है। यह मानव जीवन मात्र पैदा होने और मृत्यु को प्राप्त कर लेने का नाम नहीं
होता बल्कि उस जीवन की सार्थकता को प्राप्त करना ही मानव जीवन का असल उद्देश्य होता है। प्रकृति हम सभी को उच्च और सार्थक जीवन जीने के समान अवसर देती है। मानव जीवन मुख्यता तीन स्तरों पर जिया जाता है। पहला स्तर पशुवत मानव जीवन जीने का होता है, जिसमें व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूहों के इर्दगिर्द बात करते और काम करते हुए हम मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। हममें से ज्यादातर लोग अपने जीवन को व्यक्तियों के स्तर तक सीमित रखते हुए पशुवत जीवन जीकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
दूसरा स्तर मानव और उसके आसपास घटित घटनाओं के इर्दगिर्द जीवन जीने का होता है। ऐसे मानव जीवन को सामान्य मानव जीवन कहते हैं लेकिन बहुत कम लोग तीसरे स्तर के जीवन को जी पाते हैं। तीसरे स्तर यानि उच्च स्तर के जीवन जीने वाले लोग व्यक्तियों और घटनाओं के स्तर से अलग विचारों के इर्दगिर्द काम करते हैं। जो मानव जीवन को विचारों के स्तर पर जीते हैं वे चाहे कुछ समय ही जिये इस धरती पर अमर हो जाते हैं और ऐसा जीवन ही आदर्श मानव जीवन होता है।
पेंजिया दाई के गोंडवाना खंड के कोयामुरी दीप में हुआ था जन्म
ऐसा विचारों का जीवन बहुत कम मानव को नसीब होता है। विचारशील जीवन चाहे कुछ वर्षों का ही क्यूँ न हो लेकिन वह इंसान को हमेशा हमेशा के लिए अमर कर देता है। ऐसा अमरत्व वाला जीवन बड़े परिश्रमी, साधकों और विचारवान महापुरुषों को प्राप्त होता है। ऐसे ही एक महान विचारक का जन्म आज के दिन पेंजिया दाई के गोंडवाना खंड के कोयामुरी दीप में हुआ था। जिनके विचारों से कोइतूरों में एक नई स्फूर्ति और ऊर्जा का संचार हुआ। ऐसे महान व्यक्तित्व को दादा मोती रावण कंगाली के नाम से जानते हैं। दादा मोती रावण कंगाली कोइतूर परंपरा के सजग प्रहरी और सशक्त हस्ताक्षर हैं।
कोयापुनेमी धर्म और दर्शन की चिंगारी का फिर से उद्भव हुआ
आज कोइतूरों की जो संस्कृति और परंपरा जिंदा नजर आ रही है, वह दादा मोतीरावण कंगाली के अथक परिश्रम का नतीजा है। उन्होने अपने विचारों के खाद पानी से कोइतूर संस्कृति के नन्हें से पौधे की देखभाल की और उसे पुष्पित पल्वित करने में अपने जीवन को न्योछावर कर दिया। कभी वह कोइतूर संस्कृति जो सभी ज्ञात अज्ञात संस्कृतियों की जननी कही जाती थी, वह कोइतूर संस्कृति 20 वीं शताब्दी तक आते आते लगभग मृतप्राय हो चुकी थी और अन्य संस्कृतियों के चंगुल में घिर कर तड़फड़ा रही थी। आम जनमानस में कोइतूर संस्कृति, कोइतूर परंपराओं की स्मृति लगभग खत्म हो चुकी थी। यहाँ तक कि कोइतूर लोग भी अपने अस्तित्व को और अपनी कोयापुनेमी संस्कृति को भूल चुके थे। ऐसे में दादा कंगाली के अथक प्रयासों से महान कोयापुनेमी धर्म और दर्शन की चिंगारी का फिर से उद्भव हुआ है। दादा कंगाली ने अपने छोटे से जीवन में जो महान कार्य किया है वह कार्य इस कोयापुनेमी संस्कृति और परम्परा को पुनर्जीवित करने में सफल रहा है। अब आने वाली पीढ़ियों और हम सभी का कर्तव्य बनता है कि दादा कंगाली द्वारा दी गयी ज्ञानरूपी कोयापुनेमी चिंगारी को हवा दें और उसे एक मशाल के रूप में तब्दील कर दें। दादा कंगाली का मानना था कि किसी एक के पास मशाल होने से काम नहीं चलेगा बल्कि इस कोयापुनेमी चिंगारी से लाखों करोड़ों मशालें बनानी होंगी और प्रत्येक कोइतूर के हाथ में यह मशाल थमानी होगी तभी कोयामूरी दीप का अंधेरा दूर हो सकेगा और तभी सारे कोइतूर अपनी मूल सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक जड़ों से जुड़ सकेगे।
कोयापुनेम के पाँच अंगों सगा, भुमका, गोटुल, पेनकड़ा और पुनेम के बारे में दी प्रारम्भिक जानकारियाँ
दादा मोती रावण कंगाली ने हमेशा बहुत सादगी भरा जीवन जिया और पूरे समय कोइतूर संस्कृति, परम्पराओं और धार्मिक मान्यताओं पर कार्य करते रहे। कोइतूर संस्कृति का शायद ही ऐसा कोई पहलू होगा जहां पर दादा की निगाह न पहुंची हो। चाहे वो कोयापुनेमी मिथको की बात हो, कोइतूर इतिहास की बात हो, सामाजिक व्यवस्थाओं की बात हो या कोइतूर जीवन दर्शन की बात हो या अन्य कोयापुनेमी मान्यताओं कि बात हो-उन्होने सब पर कुछ न कुछ लिखा और नई पीढ़ी को सौंपा है। दादा कंगाली ने कोयापुनेम के पाँच अंगों सगा, भुमका, गोटुल, पेनकड़ा और पुनेम के बारे में प्रारम्भिक जानकारियाँ दी हैं।
गोंडी भाषा के प्रति उनकी महान सेवा है अतुलनीय
मुंदशूल सर्री, मुंजोक दर्शन और गोटुल दर्शन इत्यादि के बारे में आम जनमानस तक बातें पहुंचाई हैं। उन्होने कोइतूर समाज की सामाजिक परम्पराओं (जन्म, मृत्यु शादी के संस्कार), तीज त्योहारों, सांस्कृतिक परंपराओं (नृत्य, गायन, वादन) धार्मिक मान्यताओं के बारे में भी खूब लिखा है। गोंडी भाषा के प्रति उनकी महान सेवा अतुलनीय है। गोंडी भाषा को पुनर्जीवित करने और उसे आम लोगों तक पहुँचने में उनके महान योगदान को कोइतूर समाज सदियों तक याद रखेगा। हमारे कई उच्च शिक्षित भाइयों बहनों को यह सारी बातें समझने मे कुछ और समय लग सकता है क्योंकि धर्म और संस्कृति सहित इतिहास के आयाम मे वे पहली बार नजर दौड़ा रहे हैं।
तो यह दादा मोती रावण कंगाली की देन है
जिस काल खंड और जिस परिस्थिति में कंगाली दादा ने कोया पुनेम लेखन का कार्य किया वो काबिले-तारीफ है। उनका यह प्रयास अन्य संस्कृतियों के भूसे के ढेर से कोयापुनेम की सोने की सुई ढूंढ के लाने जैसा है। अगर आज हम कोइतूर संस्कृति की बात इतने जोर शोर से रख पा रहे हैं तो यह दादा मोती रावण कंगाली की देन है। गोंड, गोंडी, गोंडवाना की राजनीतिक का महल इसी कोया पुनेमी संस्कृति की भूमि पर निर्मित हो सका है। महान कोइतूर व्यवस्था में और कोया पुनेमी दर्शन में सभी मूलनिवासी जनजातियाँ और उनसे निकले हुए अन्य जातियाँ इसी मूल कोइतूर संस्कृति का अंग है। चाहे वह कोई भी कोयामूरी दीप का मानव हो वो सभी कोइतूर ही हैं, बस आज अपनी जड़ों से हटकर अलग खड़े हुए हैं।
एकजुट होकर साथ साथ चलने की है जरूरत
दादा कंगाली ने गोंड कोइतूरों के इतिहास, दर्शन, संस्कृति, धर्म, भाषा इत्यादि पर अथक कार्य किया और इन्हे एक धार्मिक सामाजिक और राजनीतिक पहचान दी। सभी कोइतूर जनजातियों और जातियों के एक साथ अकार अपनी संस्कृति, इतिहास, परंपरा, दर्शन और भाषा के साथ साथ एकजुट होकर चलने की जरूरत है। दादा मोती रावण बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। एक कुशल लेखक, गायक, वक्ता, शिल्पी और समाजसेवी होने के साथ साथ वे परिपक्व दर्शनशास्त्री, भाषा वैज्ञानिक, चिंतक, विचारक, इतिहासकार भी थे।
उसकी जड़ों में दादा कंगाली का खून पसीना लगा हुआ है
उन्हे संस्कृति भाषा और इतिहास की राजनीति की बहुत बढ़िया समझ थी लेकिन कभी भी चुनावी राजनीति में नहीं आए। उनका मानना था अगर धर्म दर्शन, संस्कृति, सभ्यता की जड़ें मजबूत होगी तो सत्ता की चुनावी राजनीति के फल फूल तो अपने आप आ ही जाएंगे। उन्होने गोंडवाना आंदोलन को बहुत ज्यादा गति दी और इस आंदोलन को खड़ा करने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। आज जो भी गोंडवाना का राजनैतिक और सामाजिक आंदोलन हम सभी को नजर आ रहा है उसकी जड़ों में दादा कंगाली का खून पसीना लगा हुआ है। सामाजिक पुरोधा के रूप में दादा कंगाली हमेशा आगे रहे उन्होने कभी भी किसी सामाजिक कार्यकर्ता को निराश नहीं किया और हमेशा सबके लिए उपलब्ध रहे।
उनकी पुस्तकें आज लाखों कोइतूरों का कर रही मार्गदर्शन
सामाजिक कार्यक्रम चाहे छोटा हो या बड़ा, उचित निवेदन पर हमेशा वहाँ पहुँचते थे। हमेशा मुसकुराते रहने वाले स्वभाव के कारण लोग उनके दीवाने बन जाते थे। मुझे कई बार ऐसे सामाजिक कार्यक्रमों में उन्हे सुनने और समझने का मौका मिला जिसमें उन्होने अपने धारा प्रवाह विचारों से सबको प्रभावित किया। उनकी वाणी में जोश के साथ साथ लोगों को उत्साहित करने का जादू भी था । वे लोगों को सोचने पर मजबूर कर देते थे। एक लेखक के रूप में उनकी लिखी हुई ढेरों पुस्तकें और पुस्तिकाएँ मौजूद है जो आज लाखों कोइतूरों का मार्गदर्शन कर रही है। उन्होने सामान्य जन की भाषा में लेखन किया और कभी भी अपना भाषाई जादू दिखने की कोशिश नहीं की। उनका मानना था कि भाषा सीधी और सरल होनी चाहिए जो लोगों के मस्तिष्क पर सीधे सीधे असर कर सके। यही कारण है कि उनकी पुस्तकें इतनी लोकप्रिय और पठनीय हैं। अपनी सरल बोली भाषा के कारण वे लोगों को कठिन से कठिन दर्शन की बातें आसानी से समझा सकने में पारंगत थे।
वे चाहते थे कि कोयापुनेम दर्शन आम कोइतूरों का जीवन दर्शन बन जाये
एक विचारक और चिंतक के रूप दादा का कोई जबाब नहीं था जब भी उनसे किसी भी कोया पुनेमी मुद्दे पर बात होती तो उसे वो उस ऊंचाई तक ले जाते जहां से सब कुछ साफ साफ दिखाई देने लगता था। कोयापुनेम दर्शन की उनकी समझ अथाह थी जिसे वो अपने लेखन में भी पूरी तरह नहीं उतार पाये। उन्हे सेवा जोहार के दर्शन और सल्ला गांगरा के दर्शन पर बेहद संजीदा और महत्त्वपूर्ण कार्य कर किया जिसके कारण ही कोया पुनेमी समझ आम लोगों तक पहुँच पायी। वे चाहते थे कि कोयापुनेम दर्शन आम कोइतूरों का जीवन दर्शन बन जाये और आम कोइतूर जन रोजमर्रा की जिंदगी में इसका पालन करे।
सेंधवी लिपि का गोंडी में उदवाचन उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण खोज रही
दादा कंगाली को मैं एक महान भाषा वैज्ञानिक मानता हूँ लेकिन दुर्भाग्य से उन्हे जो ऊंचाई इस क्षेत्र में मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिल सकी। उन्होने गोंड़ी भाषा की पुन:खोज, संवर्धन और विकास में जो भूमिका निभाई वो अतुलनीय है। सेंधवी लिपि का गोंडी में उदवाचन उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण खोज रही। उन्होने सदियों पुरानी मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की लिपियों को डी-कोड किया और उसे पढ़कर दुनिया के सामने रखा लेकिन दुर्भाग्य से दुनिया के भाषा वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी इस महत्त्वपूर्ण खोज की तरफ आकर्षित करने में असफल रहे। आज भी उनकी इस महान उपलब्धि को भारत सरकार सहित विश्व के तमाम भाषा वैज्ञानिक कोई तवज्जो नहीं दे रहे हैं।
हमें संकल्प लेना चाहिए कि उनकी मेहनत को हम अकारथ नहीं जाने देंगे
आज के युवाओं को मार्गदर्शन देने के लिए वो हमेशा आगे रहते थे। जब भी मैं उनसे मिला तब-तब बहुत कुछ सीखने और जानने को मिला। वे हमेशा युवाओं को अपनी संस्कृति सभ्यता और परम्पराओं को जानने समझने के लिए प्रेरित करते थे और कहा करते थे कि जब तक कोइतूर युवा सामने नहीं आएगा तब तक कोया पुनेमी संस्कृति और दर्शन को दुनिया के सामने नहीं स्थापित किया जा सकेगा लेकिन दुर्भाग्य देखिये आज का कोइतूर युवा अपनी संस्कृति की गहराई और सच्चाई तक नहीं पहुँच पा रहा है बस दूसरी संस्कृतियों की नकल मात्र करके गुलाम होता जा रहा है। अगर हम सभी को दादा मोती रावण के सपने को साकार करना है तो सभी को मिलकर कोया पुनेमी संस्कृति, परम्पराओं, रीति-रिवाजों, तीज त्योहारों को अपने जीवन में उतारना होगा और कोइतूर भाषा, संस्कृति और धर्म को फिर से खड़ा करना होगा। इसके बिना हम न तो अपने वर्तमान को सम्मानजनक बना सकते हैं और न ही अपने भविष्य को सबल बना सकते हैं। मोती दादा की यह सलाह हम सबको अपने दिलों मे बसा लेनी चाहिए कि अपने इतिहास और संस्कृति के सही ज्ञान से ही भविष्य के निर्माण की समझ प्राप्त होती है। आज 2 फरवरी को कंगाली दादा के जन्मदिवस के पावन अवसर पर हमें संकल्प लेना चाहिए कि उनकी मेहनत को हम अकारथ नहीं जाने देंगे और उनके सपने को साकार करने के लिए हम अपना जीवन लगा देंगे।
डॉ सूर्या बाली सूरज ''धुर्वे''
अंतर्राष्ट्रीय कोयापुनेमी चिंतनकार
प्रोफेसर एम्स भोपाल
आदरणीय डॉ सूर्या सर, आपकी लेखनी बहुत ही शानदार एवं काबिले तारीफ है लेख में दादा मोतिरावन कंगाली जी के संबंध में उनके द्वारा किये गए समाज हित एवं कोयपुनेम को पुनर्जीवित करने एवं करोड़ो लोगों में पुनेम को जाग्रत करने एवं साहित्य की रचना कर हमें जानकारी देकर हमे जड़ों से जोड़ने का काम किया है जिसके लिए हम दादा मोतिरावन कंगाली जी के सदैव ऋणी है इसी भावना से दादा को कोटि कोटि श्रधांजलि अर्पित करते है और प्रण करते है कि जब तक जीवित है समाज के लिए जो भी हमसे होगा हम करते रहेंगे,इन्ही शब्दो के साथ आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद ,सेवा सेवा सेवा जोहार
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