बारहसिंघा 1938 में 3 हजार, 1953 में 551 और 1970 में 66 पर सिमट गये थे अब हो गये 800
मध्यप्रदेश ने बारासिंघा संरक्षण में बनाई विश्व-स्तरीय पहचान
पूरे विश्व में बारासिंघा की कुल तीन उप-प्रजातियाँ भारत एवं नेपाल में पाई जाती हैं
भोपाल। गोंडवाना समय।
कान्हा टाइगर रिजर्व में बारासिंघा का पुन:स्थापन विश्व की वन्य-प्राणी संरक्षण की चुनिंदा सफलताओं में से एक है। कान्हा में हार्ड ग्राउण्ड बारासिंघा मात्र 66 की संख्या तक पहुँच गये थे। प्रबंधन के अथक प्रयासों से आज यह संख्या लगभग 800 हो गई है। अवैध शिकार और आवास स्थलों के नष्ट होने से यह प्रजाति विश्व की कुछ अति-संकटग्रस्त वन्य-प्राणी प्रजातियों में शामिल है। मध्यप्रदेश का यह राज्य पशु अब आपेक्षिक तौर पर सुरक्षित हो गया है लेकिन कान्हा प्रबंधन इसे पर्याप्त नहीं मानते हुए लगातार बारासिंघा संरक्षण के प्रबंधकीय उद्देश्यों की ओर अग्रसर है। विश्व में केवल कान्हा टाइगर रिजर्व में बचे हार्ड ग्राउण्ड बारासिंघा को अन्य स्थानों पर भी बढ़ाने के उद्देश्य से हाल के सालों में 7 बारासिंघा भोपाल के वन विहार राष्ट्रीय उद्यान और 46 को सतपुड़ा टाइगर रिजर्व भेजा गया है। वहाँ भी इनकी संख्या बढ़ी है।
इसलिये इसे स्वाम्प डियर के नाम से भी जाना जाता है
पूरे विश्व में बारासिंघा की कुल तीन उप-प्रजातियाँ भारत एवं नेपाल में पाई जाती हैं। भारत में तीनों उप-प्रजातियाँ रूसर्वस ड्यूवाउसेली, रूसर्वस ड्यूवाउसेली रंजीतसिन्ही एवं रूसर्वस ड्यूवाउसेली ब्रेंडरी क्रमश: दुधवा एवं काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, मनास राष्ट्रीय उद्यान एवं कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में पाई जाती है। कान्हा में पाये जाने वाले बारासिंघा का आवास कड़ी भूमि है, जबकि उत्तर पूर्व तथा उत्तर भारत में पाई जाने वाली इसकी अन्य दो प्रजातियाँ दलदली आवास स्थानों में रहती हैं। कान्हा का बारासिंघा कुछ हद तक दलदली स्थानों को पसंद करता है। इसलिये इसे स्वाम्प डियर के नाम से भी जाना जाता है। कान्हा में सैकड़ों वर्षों के क्रमिक विकास और अनुकूलन के कारण बारासिंघा ने अपने आप को मध्य भारत की कड़ी भूमि वाले आवास स्थल के रूप में ढाल लिया है। इस हिरण को पानी और दलदल वाले नम क्षेत्र बहुत पसंद आते हैं। भोज्य विशेषज्ञ होने के कारण यह केवल चुनिंदा प्रजाति की घास ही खाता है। इसका आवास, आश्रय, भोजन और प्रसव संबंधी आवश्यकताएँ विशिष्ट होती हैं। इसका पूरा जीवन घास के मैदानों पर निर्भर करता है। कान्हा प्रबंधन ने इन्हीं विशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए अपने अथक प्रयासों से इसकी संख्या बढ़ाने में शानदार सफलता प्राप्त की है।
कान्हा प्रबंधन ने कुछ बारासिंघा भोपाल के राष्ट्रीय वन विहार और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व में भी भेजे हैं
वन्य-प्राणी की जैव-संख्या में लगातार पतन चिंतनीय था और इसे रोकने बारासिंघा की संख्या वृद्धि के लिये शीघ्रातिशीघ्र प्रभावकारी प्रयास किये जाने आवश्यक थे। मध्यप्रदेश वन विभाग, प्रोजेक्ट टाइगर और भारत शासन के मार्गदर्शी सुझावों पर अमल करते हुए कान्हा प्रबंधन ने बारासिंघा संरक्षण के लिये जो कदम उठाये, वह आज तक जारी हैं। इन संरक्षण प्रयासों में इन-सिटू एन्क्लोजर का निर्माण, आवास स्थलों का लगातार विकास कार्य, जल विकास, दलदली क्षेत्रों का निर्माण, पसंदीदा घास मैदान का निर्माण, बारासिंघा के ऐतिहासिक रहवास सूपखार परिक्षेत्र में परिगमन और राष्ट्रीय उद्यान की पूरी जैव संख्या का रोज अनुश्रवण आदि शामिल है। वर्तमान में छोटी जैव संख्या जैविकीय (स्माल पापुलेशन बॉयोलॉजी) विज्ञान की एक मान्यता प्राप्त शाखा बन चुका है। इसके अनुसार छोटी जैव संख्या में अनेक प्रकार के प्रतिकूल जेनेटिक एवं पर्यावरणीय कारक कार्य करते रहते हैं। इसलिये इनका लगातार प्रभावी प्रबंधन और उचित अनुश्रवण किया जाना बहुत जरूरी है। कुछ जानवरों की एक साथ मृत्यु भी पूरी जैव संख्या को लम्बे समय तक प्रभावित कर सकती है। इससे बचने के लिये कान्हा प्रबंधन ने कुछ बारासिंघा भोपाल के राष्ट्रीय वन विहार और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व में भी भेजे हैं।
बारासिंघा के समूह जैविक दबाव के कारण बिखर गये थ
भारत में बीसवीं शताब्दी में बारासिंघा की आबादी में एक अत्यंत चिंतनीय बदलाव देखा गया था। इस दौरान नर्मदा, महानदी, गोदावरी और सहायक नदियों की घाटियों में खेती की जा रही थी। बारासिंघा के समूह जैविक दबाव के कारण बिखर गये थे और व्यावसायिक एवं परम्परागत शिकारियों के भय से ये काफी अलग-थलग हो गये। इससे इनकी संख्या तेजी से कम होती चली गई। वर्ष 1938 में वन विभाग द्वारा कराये गये सर्वेक्षण में कान्हा राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र और आसपास लगभग 3 हजार बारासिंघा थे। इसके बाद से बारासिंघा की संख्या में लगातार गिरावट आती गई और वर्ष 1953 में हुए आंकलन में यह संख्या 551 और वर्ष 1970 में मात्र 66 पर सिमट गई।
श्री एल. कृष्णमूर्ति