आजादी के बाद अरबों खर्च, आदिवासियों के हालात जस की तस क्यों ?
संपादकीय
ये वही मध्य प्रदेश है जहां पर आदिवासियों की 1 एकड़ जमीन अनुसूचित क्षेत्र में करोड़ों कमाने के लिये मात्र 33 रूपये प्रतिमाह में किराये से सरकार दे देती है, आदिवासियों की क्रीम जमीनों की अनुमति गैर आदिवासियों को खरीदने के लिये धड़ल्ले से देकर रिकार्ड बनाया जाता है। ऐसे अनेक मामले है आदिवासियों के हक अधिकारों को लेकर जो कागजों में दम तोड़ रहे है। फिर हम आपको बता दे कि देश में सबसे ज्यादा आदिवासियों की आबादी आदिवासियों की मध्य प्रदेश में निवास करती है। आदिवासी का स्वर्णिम इतिहास भी है लेकिन आजादी के बाद से ही आदिवासियों का हक अधिकार के लिये आज भी संघर्ष ही करते आ रहे है आखिर क्यों ? विधानसभा में अभी तो 47 विधायक है लेकिन पहले संख्या और अधिक थी सांसद की संख्या भी कम नहीं है लेकिन आदिवासी बाहुल्य राज्य मध्य प्रदेश में आदिवासियों को स्वयं के भवन के लिये मध्य प्रदेश की राजधानी में जमीन का टुकड़ा ही बड़ी मुश्किल कुछ वर्ष पहले मिल पाया है।
आदिवासी बाहुल्य राज्य मध्य प्रदेश में आदिवासियों के स्वर्णिम इतिहास को संरक्षित सुरक्षित करने में आजादी के बाद से ही कंजूसी की जाती रही और आज हालात यह है कि आदिवासियों के राजपाठ की निशानी अपनी दुदर्शा की कहानी खुद व खुद बयां कर रही है। भले ही दिखावा के लिये सरकार समय समय पर मरम्मत का मरहम जरूर लगाती रही हो लेकिन हकीकत यही है कि ईमानदारी से जनजाति वर्गाें के इतिहास को सुरक्षित संरक्षित रखने में सरकार ने अपना हाथ खींचने में ही अपनी जिम्मेदारी निभाया है। मध्य प्रदेश में 89 ब्लॉक
अनुसूचित क्षेत्र में आते है जहां पर आदिवासियों को विशेषाधिकार प्राप्त है लेकिन आज भी वे अपने अधिकारों को पाने के लिये संवैधानिक दस्तावेज दिखाते फिर रहे है, उनके अधिकार ज्ञापनों के पुलिदों में समाये हुये पूरे मध्य प्रदेश भर से आजादी के बाद आदिवासियों ने अपने अधिकारों को लेकर इतने कागजों में ज्ञापन सौंपा है कि बोरा भरेंगे तो उनकी छल्ली लग जायेगी।
सत्ता शासन सरकार में शामिल आदिवासी वर्ग के कुछेक ही विधायक सांसद होंगे जिन्होंने अपने समाज के हक अधिकार को लेकर अपनी आवाज बुलंद किये होंगे नहीं तो उन्होंने सरकार के ईशारे में चुप रहना ही उचित समझा वहीं विपक्ष दलों में शामिल विधायक सांसदों ने भी अपनी पार्टी के रीति नीति सिद्धांतों के आधार पर चलकर अपनी कुर्सी रखा है। यदि जिस किसी भी सांसद विधायक ने आदिवासी समाज के हक अधिकार के लिये अपनी आवाज को पार्टी फोरम से हटकर बुलंद करने का प्रयास किया गया था उसे किनारा कर दिया गया है लेकिन उसका समाज में जरूर इतिहास बना है लेकिन आज भी अधिकारों के लिये संघर्ष ही कर रहा है। अब बात करें आदिवासी मंत्रणा परिषद की तो क्या ये आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को दिला पायेगी यह तो भविष्य ही बतायेगा लेकिन यदि हम बात करें पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल की तो उन्होंने 21 मार्च 2018 को आदिम जाति मंत्रणा परिषद की बैठक लिया और आवश्यक दिशा-निर्देश दिये। जिसमें उन्होंने वनाधिकार के लंबित पट्टों के वितरण के लिये सभी जिलों में अभियान चलाने की बात कहा था। इसके साथ ही जनजातियों के आस्था और श्रद्धा के स्थलों के विकास की योजना बनाने की बात भी कहा था। अनुसूचित जनजाति के बैकलॉग के पदों की पूर्ति के लिये विशेष अभियान चलाये जाने की बात कहा था जनजाति के लोगों के विरूद्ध चल रहे छोटे प्रकरण अभियान चलाकर वापस लिये जायें। आदिवासी क्षेत्रों के किलों और गढ़ों के रखरखाव के कार्य करें। यह सुनिश्चित करें कि आदिवासी महिला छात्रावासों में छात्रावास अधीक्षक महिला ही रहें। आवश्यकता हो तो इसके लिये नयी भर्ती करें पर ये सब पूरा हुआ क्या यह बुद्धिजीवि अच्छे से जानते है।
अब मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार वक्त है बदलाव के साथ आयी है और आदिवासी बाहुल्य जिला छिंदवाड़ा में बीते 40 वर्षों से राजनीतिक सियासत में निरंतर आगे बढ़ते हुये विकास की ओर बढ़ने वाले मुख्यमंत्री श्री कमल नाथ आदिवासी मंत्रणा परिषद के अध्यक्ष भी है और 9 जनवरी 2020 को बैठक होना है। हालांकि कुछ
फैसले ऐसे लेने का साहस जरूर मुख्यमंत्री श्री कमल नाथ ने दिखाया है जो पहले नहीं लिये गये लेकिन उन्हें अमलीजामा पहनाने में उनकी प्रशासनिक मिशनरी कामयाब नहीं होने दे रही है। वहीं बात करें आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों की तो उन्हें सब जानते है मानते है लेकिन धरातल में और वास्तविकता में आदिवासियों को अधिकार सरकार नहीं दे पा रही है आखिर क्यों ?