देशज समुदाय बैगा भारत के सर्वाधिक प्राचीन, सबसे उल्लेखनीय व सबसे खुशनुमा लोगों में से हैं
मुकद्दम व्यवस्था के मजबूत स्तंभ है देशज समुदाय बैगा
बैगा जनजाति, लोक परम्परा, समस्या व चुनौतियां, एक अवलोकन
बैगा नाम का अर्थ भूमि का देवता भी माना जाता है
विकसित समाज के जीवन मूल्यों से बैगा जनजातियों के जीवन मूल्यों में अधिक जान है
गोदना देश की गौरवमयी इतिहास को विशिष्टता प्रदान करती है
लड़का पक्ष ही लड़की के यहां होने वाले खर्च का वहन अनाज देकर करता है
जितनी प्राचीन जनजाति है, उतनी ही प्राचीन बैगाओं की संस्कृति भी है। बैगा भारत के आठ राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, बिहार, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में निवास करते है। बैगा जनजाति अपने संस्कृति को संजोये हुए है। बैगा जनजाति के लोग प्रकृति की अराधना करते है। बैगा समुदाय के लोग मध्यम कद काठी व लंबे शकरे सिर वाले होते है। ये प्राय: सबसे घने वन क्षेत्रों के समीप रहते हैं। विकसित समाज मे फैली हुई विकृतियो से वे सर्वथा मुक्त है। भले ही आज वे निरक्षर है पर अनुभवो के अपार संपत्ति के स्वामी भी हैं।
विशेष लेख
सम्मल सिंह मरकाम
वनग्राम जंगलीखेड़ा, गढी जिला बालाघाट म प्र,
भारत मे जनजातीय जनसंख्या मे विविधता है, जो अपनी महान जनजातीय विविधता को दशार्ती है। जनजाति भारत की वह स्थानीय प्रजाति है जिसकी भारतीय संस्कृति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जनगणना 2011 के अनुसार जनजातीय प्रतिशत देश की कुल जनसंख्या की लगभग 8% है। देशज समुदाय बहुतायत रूप से पहाड़ी व वन क्षेत्रो मे निवासरत हैं। पूर्व कृषि प्रौद्योगिकी, निम्न साक्षरता एवं स्थिर व घटती हुई जनसंख्या के आधार पर म.प्र. में केवल तीन जनजातियो को आदिम जनजाति माना गया है। बैगा मध्य प्रदेश की ऐसी ही एक जनजाति है। इन तीन कारको के अलावा देशज समुदाय बैगा, अन्य देशज समुदाय से सामाजिक व आर्थिक रूप से कमजोर होते है। बैगा नाम का अर्थ भूमि का देवता भी माना जाता है। देशज समुदाय बैगा भारत के सर्वाधिक प्राचीन, सबसे उल्लेखनीय व सबसे खुशनुमा लोगों में से हैं। देशज समुदाय बैगा पर सबसे पहले अध्ययन 1867 मे कैप्टकन थामस ने किया था, तदोपरांत ब्रिटिशकाल में बालाघाट व बिलासपुर जोन के डिप्टी कलेक्टर कर्नल ब्लोम फीड (1868-1885), डॉ आर.वी. रसल (1931), एवंवेरियर एल्विन (1932) जिन्होनें भारतीय जनजातियों पर विस्तार से अध्ययन किया व अधिकारिक तौर पर लिखा कि जनजातियो के लिये आरिजनल ओनर्स शब्द अधिक उपयुक्त है ।
जितनी प्राचीन जनजाति है, उतनी ही प्राचीन बैगाओं की संस्कृति भी है
बैगा, गोंड समुदाय के नेंगी होते है, ये रूढि प्रथा का कड़ाई से पालन करते है
मानव शास्त्रियों के अनुसार मानव जाति को रंग, रूप, आकार, शारीरिक बनावट और विशेषताओं के आधार पर अनेक समूहों में वगीर्कृत किया जा सकता है। वर्तमान भारतीय समुदाय अनेक प्रजातियो का सम्मिलित स्वरूप है। इसी क्रम में मानव शास्त्रियो का मत है कि देशज समुदाय की अधिकांश समूह नीग्रीटो, आस्ट्रेलायड, व मंगोलायड प्रजाति वंशज हैं। बैगा जनजाति द्रविड़ भाषा समूह की एक आदिम जनजाति है। भौगोलिक दृष्टि से देशज समूह को चार प्रमुख भागो मे बांटा जा सकता है (1) उत्तर एवं उत्तर पूर्व क्षेत्र, (2) मध्य क्षेत्र, (3) पश्चिम क्षेत्र (4) दक्षिण क्षेत्र शामिल है। बैगा व गोंड एक ही भौगोलिक क्षेत्र मे पायी जाने वाली जनजातियां हैं, ये दोनो जनजातियां क्रमश: कोल एवं द्रविण जनजाति समूहो से संबंध रखते है। कोयापुनेमी व्यवस्था अनुसार बैगा, गोंड समुदाय के नेंगी होते है, ये रूढि प्रथा का कड़ाई से पालन करते है।महुआ के फूल व फल से विभिन्न उत्पाद तैयार कर जीवन निर्वहन करते है
देशज समुदाय बैगा, छोटा नागपुर पठार की आदिम जनजाति भुंइया की मध्यप्रदेशीय शाखा है। कालांतर मे भूमिया बैगा के रूप में भी जाने-पहचाने लगे। विभिन्न स्थानों पर बैगा जनजाति को दवार, गुनिया, ओझा भी कहते है पर ये संबोधन काम के अनुसार होता है। बैगा समुदाय के लोग मध्यम कद काठी व लंबे शकरे सिर वाले होते है। ये प्राय: सबसे घने वन क्षेत्रों के समीप रहते हैं, बैगा कुल्हाड़ी चलाने मे सबसे माहिर होते है, अजीविका के लिये कुल्हाड़ी पर निर्भर रहते है। जंगल से निस्तार के लिये लकड़ी लाकर व बेचकर, महुआ के फूल व फल से विभिन्न उत्पाद तैयार कर जीवन निर्वहन करते है।उड़ीसा में महानदी के दक्षिणी भाग बिलाईगढ़ क्षेत्र पर शासन किया था
ऐतिहासिक व सामाजिक आर्थिक प्रभावों ने देश की अधिसंख्य जनसंख्या को बाह्य एवं सीमित दशाओं मे एकरूपता प्रदान की है लेकिन भारत की जनसंख्या का एक भाग इन प्रभावों से अपेक्षाकृत अप्रभावित रहा है। इस भाग के अंतर्गत भारत के प्राचीनतम निवासियों के वंशजो के छोटे-बड़े समूह आते हैं। जो आज भी जीवित संस्कृति व विकास के आरंभिक व वास्तविक धरातल पर जीवन निर्वहन करते है। वर्तमान मे इन्हीं वंशजो को संवैधानिक रूप से अनुसूचित जनजाति के रूप मे वगीर्कृत किया गया है। उल्लेखनीय है कि बैगा समुदाय की एक शाखा मैना राजवंश ने किसी समय उड़ीसा में महानदी के दक्षिणी भाग बिलाईगढ़ क्षेत्र पर शासन किया था ।वनोत्पमद के माध्यतम से ही ये उपचार करते है
बैगा जनजाति अपनी जीवन शैली, खानपान की आदतें, विश्वास और परम्परायें, सामाजिक- सांस्कृतिक और जैविक क्रियाकलाप होते हैं। उपचार परम्परा भी वन आधारित होती है। शोध के अनुसार होने वाली बीमारियों का कारण धार्मिक, सामाजिक, सुपर नैचुरल एवं पर्यावरणीय कारण (48.9 प्रतिशत) मानते है, जो दशार्ता है कि यह समुदाय पर्यावरण के प्रति कितना गंभीर है। वनोत्पमद के माध्यतम से ही ये उपचार करते है जिसमें पत्तियॉ 25 प्रतिशत, जड़े 45 प्रतिशत, छाल 17 प्रतिशत, पुष्प 5 प्रतिशत होती है। अनेक अध्ययनो में जनजातियो के पारिस्थितिकी तंत्र व उनके पोषण स्तर के बीच घनिष्ठ संबंध दशार्या गया है ।हमें बैगा समुदाय में प्रचलित विश्वासों मे प्रकृति के दर्शन होते हैं
जनजातियों के प्रति अज्ञानतावश आम लोग उन्हें अनपढ़ तथा पिछड़ा समझ कर हेय दृष्टि से देखते हैं परंतु उनके प्राकृतिक जीवन मूल्यों तथा मनोहारी परम्पराओं पर दृष्टिपात करें तो हम अधिकारिक रूप से कह सकते है कि भले ही विकास की रोशनी जनजाति तक न पहुंची हो परंतु विकसित समाज के जीवन मूल्यों से जनजातियों के जीवन मूल्यों में अधिक जान है। विकसित समाज मे फैली हुई विकृतियो से वे सर्वथा मुक्त है। उनकी जीवन शैली कथित सभ्य समाज की तुलना मे अधिक पारदर्शी है तथा सीधे भूमि व पर्यावरण से जुड़े है। भले ही आज वे निरक्षर है पर अनुभवो के अपार संपत्ति के स्वामी भी हैं। सार तौर पर हमें बैगा समुदाय में प्रचलित विश्वासों मे प्रकृति के दर्शन होते हैं, जो अपने आप मे जीववाद से लेकर प्रकृतिवाद, टोटमवादव बहुदेववाद को सम्मिलित करते हुये गोटुल व टोटम व्यवस्था का पालन भी करता है।बैगा जनजाति की अर्थव्यवस्था प्रकृति पर निर्भर है
जनजातीय अर्थव्यवस्था का व्यापक अध्ययन मे सर्वप्रथम मानवशास्त्री- डी.एस. नाग (1958) ने अविभाजित मध्य प्रदेश के मण्डला बालाघाट, बिलासपुर व दुर्ग के बैगा जनजातीय क्षेत्रों का दौरा कर बैगा अर्थव्यवस्था का अध्ययन कर प्रस्तुत किया कि बैगा जनजाति की अर्थव्यवस्था का वृहद भाग प्रकृति पर निर्भर हैं ।बैगा जननजाति प्रकृति दर्शन से युक्त संस्कृति
बैगा समुदाय की संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रकृति दर्शन बहुत ही समृद्ध हैं व गूढ़ कलाओ से परिपूर्ण हैं। पारंपरिक लोकनृत्य करमा, शैला, रीना, ददरिया, नृत्य व गायन कासमय व स्थान के अनुसार अलग-अलग महत्व है। वहीं लोक संस्कृति मे गोदना का इतिहास बहुत पुराना है। भारत के विभिन्न समुदायों मे कला की परंपरा प्राचीन काल से ही पल्लवित, पुष्पित, संवर्धित होती आयी है। यह आकर्षक व विविधताओ से भरी है। इसी क्रम में गोदना कला का अपना एक विशिष्ट महत्व है। गोदना को लेकर कई मान्यतायें हैं, गोदना देश की गौरवमयी इतिहास को विशिष्टता प्रदान करती है। इतिहासकारो का मानना है कि इतिहास लिखे जाने से पहले बैगा समुदाय में प्रचलित इस गोदना कला ने इतिहास रचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। गोदना का ऐतिहासिक रहस्य बाहर आना शेष है और यह रहस्य प्रकृति सम्मत कोयापुनेम के प्रकृति संरक्षण, संतुलन व संवर्धन के सिद्धांत मे निहित है। इन सिद्धांतों का प्रत्यक्षत: प्रमाण गोदना में देख सकते है। देशज समुदाय की शिक्षा व ज्ञान कितनी गूढ़ है। उनके पास प्रमाण पत्र नहीं बल्कि वास्तविक रूप से प्रकृति को नजदीक से जानने समझने व हूबहू व्यवहार करने की शिक्षा है, जिसकी आज संपूर्ण विश्व को आवश्यकता है।इस प्रकार समाज का मान-सम्मान व अस्तित्व आज बच पाया
इतिहास के अध्ययन में ज्ञात होता है कि प्राचीन काल विभिन्न गैर जनजातीय समुदायो के राजघरानो द्वारा देश में आक्रमण हुये व जो हो सका हड़प ली गयी क्योंकि उस समय जनजातियो की सामाजिक, आिर्थक,राजनैतिक स्थिति बहुत कमजोर थी। इस कमजोरी का फायदा निश्चित ही आक्रमणकारियों ने उठाया। उनकी नीति थी कि जो भी सुंदर, सुशील, कन्या व स्त्री नजर आती थी उन्हे बलवपूर्वक उठा लेते थे व शोषण करते थे। इस समय जनजाति समुदाय इनका मुकाबला नहीं कर सकते थे, क्रूर नीति व विध्वंश से समाज को बचाने के लिये गोदना का अविष्कार किया गया व अपने समाज की मातृशक्तियो के चेहरे मे गोदकर, बुरी नियत से बचायी गयी। इस प्रकार समाज का मान-सम्मान व अस्तित्व आज बच पाया।शिक्षक तिरू बरकत सिंह मेरावी जी, जो बैगा समुदाय पर शोध कर रहे है
बैगा समुदाय में जन्म, विवाह व मृत्यु के संस्कार, रीति-रिवाज परम्परायें पूर्णतया प्रकृति सम्मत हैं, इस विषय में शिक्षक तिरू बरकत सिंह मेरावी जी, जो बैगा समुदाय पर शोध कर रहे है व आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी है, आपके निर्देशन मे पूरा बैगा समुदाय का एक पूरा गांव शिक्षित व सामाजिक व आर्थिक रूप से संपन्न हो गया है, अधिकांश बैगा समुदाय के बच्चे सरकारी नौकरी में आ चुके हैं। आप से हुई विस्तारपूर्वक चर्चा के कुछ महत्वपूर्ण अंश को यहां समाहित किया गया है ।बैगा जनजाति में पुटसीना नेंग (जन्म संस्कार)
अधिकांशत: सुइनमाइन या दायी से सम्पन्न होती है व जंगली औषधियां प्रसूता को खिलाया जातीं है, साथ में कोदो कुटक आदि का भोजन दिया जाता है। जिससे किसी भी प्रकार की शीत व कमजोरी संबंधी बीमारी नहीं होती है। अब शासन की योजनाओं की धीरे धीरे पहुंच से प्रसूती, अस्पताल मे होनें लगे है। जन्म के बाद पूरे एक माह प्रसूता खाना नहीं बनाती है। एक महिने बाद उसे स्नान उपरांत भुमका व सेरमिया के उपस्थिति में गृह प्रवेश करायी जाती है, उसके बाद वह भोजन आदि बनाने की अनुमति होती है। नामकरण की व्यवस्था का अपना अलग रिवाज है, जिस पर शोध किया जाना आवश्यक है ।बैगा जनजाति में मड़मींग नेंग (विवाह परम्परा)
बैगा समुदाय में मड़ई के बाद रिश्ते-संबंधी बातचीत प्रारंभ की जाती है। विवाह परम्परा में रोचकता का दृश्य हम देखते हैं दूल्हे के सम्मान के लिये पेन (देव) व्यवस्था का पालन करते हैं। यदि वधु 6 पेन परिवार की है तो उस ओर 6 मुशियाड़ (मशाल) जलाते है व वर यदि 7 पेन परिवार का है तो 7 मुशियाड़ जलाते है। विशेष उल्लेखनीय है कि मुशियाड़ से स्वागत करने की अनुमति वधु देती है उसके बाद नंगाड़े की धुन पर नृत्य करते हुये स्वागत करते हैं। बिस्टी प्रथा आज भी जीवित है लड़के की ओर से लड़की पक्ष में जाकर बिस्टी हर नेंग दस्तूर करता है व सहयोग करता है। वही खाट, सूपा, झिटका से हाथी बनाते हैं व दुल्हन के रिस्तेदारो का स्वागत करते हैं। बैगा समाज मे खर्ची कदय का प्रचलन है, जिसमे वर्तमान दहेज प्रथा व कुरीतियो से दूर लड़का पक्ष ही लड़की के यहां होने वाले खर्च का वहन अनाज देकर करता है व टेढ़ा- टेढ़ी (सुवासा-सुवासिन) व भुमका द्वारा विवाह सम्पन्न कराया जाता है। विशेष उल्लेखनीय है कि वर्तमान तामझाम व दहेज जैसे कुरीतियों से दूर बैगा समुदाय में खरची कदय का प्रचलन है, जिसमे वर पक्ष, वधु पक्ष पर पड़ रहे विवाह भार का वहन स्वयं करता है। बैगा जनजाति सामाजिक आधार में गोंड ही है क्योंकि बैगा समुदाय कोयापुनेम व्यवस्था के अंतर्गत गोंड के नेंगी होते हैं। वही मुकद्दमी व्यवस्था के प्रमुख तीन स्तंभ मे एक स्तंभ बैगा समुदाय है ।बैगा जनजाति में सायना नेंग (सायना नेंग)
परिवार के किसी बुजुर्ग या कोई भी सदस्य की मृत्यु ही जाये तो, मृत शरीर को मिट्टी देना प्रचलित है क्योकि प्रकृति के हूबहू इनकी परंपरा हैं। दफनाने के बाद वहां पर दोना या कटोरा में मृतक के घर मे बना पेज (जावा) रख दिया जाता है। शाम को पेज देखने बुजुर्ग या भुमका जाता है, यदि पेज कम हो गया है या खत्म हो गया है तो यह माना जाता है कि आत्मा यही है, वही यदि पेज जस का तस रखा हो तो ये मान्यता है कि आत्मा जा चुकी है लौटकर किसी न किसी सदस्य के घर जन्म जरूर लेगा। यह व्यवस्था मूलत: जीववाद सिध्दांत पर आधारित है, उल्लेख पूर्व मे किया जा चुका है।साहूकारों के शोषण का शिकार होती बैगा जनजाति
साहूकार इन्हें ब्याज पर पैसे देते हैं, और वस्त्रादि भी उपलब्ध कराते हैं। इस प्रकार अत्यधिक रूप से साहूकार इनके सरलतम और अज्ञानता का फायदा उठाते हैं। सुदूर क्षेत्रों में होने व आर्थिक तंगी के कारण आवश्यक सामग्री की पूर्ति हेतु इन्हीं पर मजबूरन निर्भर रहना पड़ता है। जब भी पैसे की जरूरत पड़ती है, साहूकार इनके पास स्वयं जाकर बिना शर्त कर्ज दे देते हैं। बंधक के रूप में कोई सामान तो होता नहीं है सिवाय बैगा जनजाति के ईमानदार विश्वास के, कि वे लिये गये ऋण वापस कर देंगे । साहूकार इनके सहज सरल स्वभाव व मानवीय संवेदनाओ का उपयोग, व्यापारिक कामकाज में करता है। वह जनजातीय समुदाय के बीच उनकी भाषा में बात करता है। जैसे बैगा जनजाति से बैगानी भाषा में, वही गोंड जनजातीय बाहुल्य में वे पाना पारसी (गोंडी) मे बात करता है व अपने व्यापार करने के लिये स्थानीय जनजातियो की भाषा सीखकर बोलनें लगता है व व्यापार करता है। इस प्रकार साहूकार एक तरफ एक अंग बन जाता है, वहीं दूसरी तरफ अदायगी के रूप में मुद्रा व वस्तु दोनों ही ले लेता है। बंधुआ मजदूर भी बना लेता है, धीरे- धीरे जनजातियो के जमीनें भी अवैध रूप से कब्जा कर लेता है। रजिस्ट्री उसके नाम तो नहीं हो सकती इसलिये उस जमीन को धीरे धीरे बेचकर पैसे खुद रख लेता है। जमीन मालिक की कर्ज तले दबने से मजबूरी है कि सेठ के इस कृत्य का विरोध भी नहीं कर सकता है। वहीं साहूकार इस भावनात्मक संबंध का गलत फायदा उठाता है व जनजाति समुदाय की महिलाओं पर बुरी नियत भी रखता है। अपने चुंगल में फंसाकर जनजाति महिला से विवाह कर लेता है व महिला के नाम पर खूब चल-अचल संपत्ति खरीदकर, विभिन्न प्रकार के शोषण करता रहता है। यह व्याभिचार जनजातीय समुदाय की ज्वलंत समस्याओ में एक है । बैगा जनजाति मुख्यत: बेरोजगारी, आर्थिक कमजोरी, ऋणग्रस्ता, निरक्षरता, परसंस्कृतिग्रहण, बंधुआ मजदूरी, कृषि से वंचित, साहूकारो द्वारा शोषण, नगरीय सभ्यता से संस्कृति का नष्टहोना, स्वास्थय संबंधीव सबसे महत्वपूर्ण पहचान की संकट जैसे समस्याओं से आज घिरा हुआ है ।
इसके बावजूद विकास की रोशनी का प्रत्येक बैगा जनजाति तक न पहुंचना बहुत से प्रश्नों को जन्म देता है
उपरोक्त समस्याओं पर बैगा जनजातीय ग्रामों को नजदीक से जानने समझने व व्यवस्था से जुड़े समाजसेवी, एडव्होकेट ति राजेश मरावी (पण्ड्रापानी) से गहन विचार विमर्श में यह यथ्य व हकीकत सामने आये कि अनेको संवैधानिक सुरक्षा व विकास के लिये प्रावधान हैं, नियमो व कानूनों मे जनजातीय विकास हेतु प्रतिबद्ध है। इसके महत्वपूर्ण अंश पाठको तक प्रेषित है। संविधान मे अनुच्छेद 46 के अलावा अन्य अनुच्छेद भी हैं, जिसमें जनजातियो के लिये विशेष प्रावधान किये गये हैं व जनजातियों की चर्चा की गयी है। इन अनुच्छेदों के माध्यम से उनके हितों के लिये विशेष मंत्री (अनुच्छेद-164) एवं विशेष अधिकारी (अनुच्छेद -268) की नियुक्ति उनके अनुसूचित क्षेत्र तथा जनजातीय क्षेत्र के लिये विशेष प्रशासन (अनुच्छेद-244) एवं केन्द्रीय नियंत्रण (अनुच्छोद -339)तथा कुछ राज्यों को विशेष अनुदान (अनुच्छेद- 275), लोकसभा तथा राज्यों की विधान सभाओं मे स्थान सुरक्षित (अनुच्छेद-332), एवं विशेष प्रतिनिधित्व (अनुच्छेद- 334), सेवा एवं पदो पर विशेषाधिकार (अनुच्छेद-335), की व्यवस्था की गयी है। अनुच्छेद 342 एवं 366, मे क्रमश: स्पष्ट परिभाषा व सूचीबद्ध किया गया है व महामहिम राष्ट्रपति को विशेषाधिकार है कि इस सूची मे संशोधन व जोड़ सकते हैं। इसके अतिरिक्त छ: सर्वमान्य अनुच्छेद भी जनजातीय समुदाय को संरक्षण प्रदान करते हैं। संविधान मे व्यवस्था है कि धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग, या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं होगा व सभी को समान अवसर, छुआछूत उन्मूलन, बेगार पर प्रितबंध, अल्पसंख्यक सुरक्षा व सामाजिक सुव्यवस्था का अधिकार प्राप्त होगा (अनुच्छेद-15 , 16, 17, 23, 29, व 38, )। वही शासन केन्द्र व राज्य सरकार विभिन्न योजनाओं के साथ-साथ, बैगा विकास प्राधिकरण, व जनजाति उपयोजना का संचालन करता है, इसके बावजूद विकास की रोशनी का प्रत्येक बैगा जनजाति तक न पहुंचना बहुत से प्रश्नों को जन्म देता है। हमें चिंतन मनन व इस दिशा मे और पहल करने की सख्त आवश्यकता है।कानून से अधिक आवश्यकता जागरूकता की होती है
किसी भी समाज की उन्नति के लिये कानून से अधिक आवश्यकता जागरूकता की होती है और यह स्पष्ट है कि भारत मे देशज समुदायों के प्रति बहुत ही कम जागरूकता है। जिसे विभिन्न प्रयासों व धरातल पर काम करके बढ़ाया जाये। वहीं यह स्थिति जनजातीय नेतृत्व के लिये भी एक चुनौती है कि आजादी से आज तक निरंतर विधायक, सांसद, मंत्री सभी रहे है फिर भी आज जनजातीय समुदाय की स्थिति उतना सुदृढ नहीं है जितना सरकारी तंत्र द्वारा किया गया व परियोजनाओ पर किये गये खर्च संबंधी आंकड़े/ रिपोर्ट कहता है।विशेष लेख
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