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सोचें लोकतंत्र पर होने वाले हमलों पर कैसे रोक लगाएं ?

सोचें लोकतंत्र पर होने वाले हमलों पर कैसे रोक लगाएं ? 

शरद पूर्णिमा के दिन हुआ विमर्श चौपाल का आगाज 

सिवनी। गोंडवाना समय। 
तेरह अक्टूबर को जहाँ सारा नगर शरदपूर्णिमा पर्व की तैयारी में व्यस्त था वहीं संजय वार्ड स्थित, दादू निवास में जिला साहित्य मंच सिवनी  के बैनर तले, विमर्श-चौपाल  कार्यक्रम का शुभारंभ हुओ विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत चिंतनशील नागरिकों ने, आस्ट्रिया-से पधारीं विदेशी मित्र की उपस्थिति में राष्ट्र हित से संबन्धित अखिलेश सिंह श्रीवास्तव(दादू भाई) के प्रकाशित आलेख ह्यलोकतंत्र की शोभा-राजनीती या लोकनीतिह्णह्ण पर सफल विमर्श कियो विदित हो पिछले कई माहों से ऐसी विचार-गोष्ठी के प्रारंभ पर सभी प्रबुद्ध लोग एक मत थे

लोकनीति के नाम से जुड़ते हैं और अवसर पाकर राजनीती से जुड़ मतलब निकालते हैं

चौपाल में उपस्थित वक्ताओं ने खुल के अपने विचार पटल पर रखे। विचारक नरेंद्र अग्रवाल ने अपने विचार रखते हुए कहा, ऐसा कोइ भ्रम नहीं है कि राजनीति और लोकनीति एक नहीं है, पर राजनीति भ्रष्टाचार की और चली गई है, आज भी ऐसे नेता हैं जो बहुत ईमानदार हैं राजनीति से ही लोकनीति निकलती है उन्नीस सौ सत्तर से देश में बड़ा परिवर्तन आया है राजनीती को लोकनिति की राह पर चलाना पड़ेगा । नगर संघ चालाक घनश्याम मिश्र ने कहा, नीति, रीती, परमार्थ, स्वार्थ ये चार शब्द हैं जिन पर जीवन आश्रित है, श्री राम का जीवन चारों प्रकार का है, वर्त्तमान में वो महापुरुष महात्मा गाँधी हैं, आज भी यदी ह्रदय-से प्रयन्त करें तो गाँधी-सा बना जा सकता है, त्याग जरूरी है, विमर्श के साथ परामर्श की आवश्यकता है। गीतकार अरुण चौरसिया प्रवाह ने चिंतन बढ़ाते हुए कहा, राजनीति और लोकनीति से संकेत मिलते हैं, राजा का तंत्र और लोक का तंत्र लोकनीति पर विमर्श की अवश्यकता है। उन्नीस सौ पचास के बाद से अपने देश में लोकनीति पर चर्चा होना शुरू हो गई है, राजतंत्र में जनता की सुनवाई कम होती है उल्टे लोक संसाधन भी आसानी से प्राप्त नहीं होते है। मरझोर निवासी से.नि. प्राचार्य, दुगार्शंकर श्रीवास्तव का विचार था, जयप्रकाश जैसे नेता के नेतृत्व में बड़े आंदोलन भी हुए अन्त्योदय जैसी योजना इसी का उदहारण है, पर राजनीति के मार्ग में चलके कई नेता पथ-भ्रष्ट हो गए, लोकनीति के नाम से जुड़ते हैं और अवसर पा कर राजनीती से जुड़ मतलब निकालते हैं।

जो सरकार लोकनीति का पालन नहीं कराती उसे सत्ता पर रहने का अधिकार नहीं

शिक्षाविद, वरिष्ठ साहित्यकार, रमेश श्रीवास्तव चातक का उद्बोधन था, जब-जब राजनीति का पतन हुआ है लोकनीति का भी स हुआ धर्म-ग्रन्थ भी कहते हैं अधिकतम लोगों का अधिकतम कल्याण सतियुग में राजनीत गुरुओं के हाथ में थी तो फली-फूली, द्वापर में अंधों के हाथों में आई तो महाभारत हुआ, आपराधिक सोच से लोकनीति संभव नहीं है, मैं यही कहूँगा-कैसे-कैसे ऐसे-वैसे हो गए, ऐसे-वैसे कैसे-कैसे हो गए, वहीं डॉक्टर अभिषेक श्रीवास्तव का कहा, जहाँ स्वार्थ सिद्धी आती है वहाँ राजनीति दिखती है, जबकी लोकनीति में नि:स्वार्थ भाव छिपे हैं, राजनीती और लोकनिति में छोटा सा अंतर है उसको समझाने के लिए हमें दृष्टि साफ रखनी होगी। मानव अधिकार और गाँधी पीस के जगदीश तपिश बोले, लोकनीति और राजनीती का आपस में सम्बन्ध है, देश संविधान से चलता है मानव अधिकार ही लोकाधिकार हैं, जो सरकार लोकनीति का पालन नहीं कराती उसे सत्ता पर रहने का अधिकार नहीं।

इसीलिए राजतंत्र भ्रष्टतंत्र में शामिल हो गया है

मानव अधिकार आयोग मित्र पी.एल.वर्मा का कहना था, विमर्श चौपाल के माध्यम से आगे बढ़ाना होगा विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका का विशेष स्थान है, राजनीति में सेवाभाव से आने वालों की बहुत कमी आ गई है, इसीलिए राजतंत्र भ्रष्टतंत्र में शामिल हो गया है,  लोकनीति के माध्यम से सब कार्य होना चाहिए, व्यंगकार नरेंद्र नाथ चट्टान ने कुछ यूँ कहा, राजनीति शब्द सुनते ही लोगों के मन में गलत धरणा बनती है, हमें तो सिर्फ वोट देने का ही अधिकार है, राजनीति के लिए भी योग्यता निर्धारण होना चाहिए। समाज सेवी अहफाज कुरैशी ने राजनीति और लोकनिति को मानवीय सोच से जोड़ते उए उद्बोधन दिया, क्रिया कि प्रतिक्रिया होती है पर यह ध्यान रखना होगा कि उसका परिणाम क्या निकलेगा...? आजादी कीमत मांगती है,  हमें सोच बदलनी होगी। युवा नेता नवेंदु मिश्र ने अपनी बात रखते हुए कहा, लोकतंत्र एक सेवा भाव है, संघर्ष है जिससे राजनीती में बदलाव आ सकता है नीति हमेशा ताकत के इर्द-गिर्द घूमती है।

सिर्फ पुरुष ही क्यों शामिल होते हैं, महिला क्यों नहीं...? 

एन.जी.ओ. संचालक गौरव जैसवाल ने व्यावहारिक सवाल उठाए, शब्दार्थ-भावार्थ क्या हैं ? शब्दों में ना रुकें बल्की इसके आगे आ के कार्य करना होगा, सोचें लोकतंत्र पर होने वाले हमलों पर कैसे रोक लगाएं ? इस प्रकार की बैठकों में बुद्धीजीवी लोगों के रूप में सिर्फ पुरुष ही क्यों शामिल होते हैं, महिला क्यों नहीं...? विधिवेत्ता और
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामकुमार चतुवेर्दी ने अपनी राष्ट्रीय भावना पटल संमुख रखीं, लोकनीति और राजनीति एक दूसरे से अलग नहीं पर राजनीती लोक कल्याणी परिवर्तन को परिवर्तित नहीं होने देना चाहतीं, जब राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री हेतु प्रत्यक्ष प्रणाली के लिए सभी तैयार हैं तो फिर विभेद कैसा? शिक्षा तक का राजनीति कारण हो गया है, पार्टियाँ प्रत्याशी थोपती हैं, लोकनीति का अच्छा उदहारण अठारह सौ संतावन की क्रांति के समय के निर्णय हैें। से.नि.संयुक्त पंजीयक(सहकारिता) दादू निवेंद्र नाथ सिंह ने अपने उदगार कुछ यूँ रखे, राजनीती और लोकनीति में अंतर होता है, हमें प्रजातंत्र को समझाना होगा, भले कई सरकारें आएँ पर राष्ट्रीय नीति एक होना चाहिए, अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों के लिए भी जागरूक होना होगा तभी लोकनीति का महत्त्व है।

निसंदेह लोकतंत्र की शोभा लोकनीति है

आस्टेलिया से पधारी लेना ने इस विषय पर अत्यंत संक्षिप्त पर महत्वपूर्ण बात कही, समाज के हर व्यक्ति की आवाज मजबूत होना चाहिए, कवयित्री प्रतिमा अखिलेश ने कहा, लोकनीति की बुनियादी विचार हमे बच्चों से सीखना चाहिए जो भी प्रत्याशी चुनावी प्रक्रिया से विजित हो हमें मन से उसे स्वीकार कर सम्मान करना चाहिए,लोकनीति में मजबूत सामाजिक भाव निहित होते हैं, जन प्रिय नेता मोहन सिंह चंदेल ने इस अहम मुद्दे पर प्रकाश डालते हुए कहा, मैं राजनीति में होते हुए भी यह स्वीकार करता हूँ लोकतंत्र की नीति तो लोकनीति ही है, निसंदेह लोकतंत्र की शोभा लोकनीति है, पर ध्यान दें श्री कृष्ण को भी महाभारत में लोकनीति के साथ राजनीति का स्तेमाल करना पड़ा था। इसके लिए राजनीति से जुड़े लोगों को लोकनीति के प्रति जाग्रत कराना होगा। इस विमर्श के संचालक अखिलेश सिंह श्रीवास्तव (दादू भाई) ने कहा, शब्दों का बड़ा महत्त्व होता है जो लोगों के मन में स्थाई जगह बना लेते हैं, ऐसे में मेरा यह मानना है लोकतंत्र की शब्दावली लोकाश्रित ही होनी चाहिए। वैशाली प्राचीन भारत का लोकतंत्र था हम तत्समय की शब्दावली से सहायता ले सकते हैं। अधिपति, वाद, सत्तारूढ़ जैसे शब्दों से बचाना चाहिए, विमर्श में श्री नायडू सहित अन्य लोगों की गरिमामई उपस्थिति रही।

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