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भारतीय मूल का नववर्ष पूनल सावरी : डॉ सूर्या बाली सूरज धुर्वे

भारतीय मूल का नववर्ष पूनल सावरी : डॉ सूर्या बाली सूरज धुर्वे

आइये आज आपको प्राकृतिक नववर्ष की बधाई देते हुए इसके इतिहास और वर्तमान स्वरूप की जानकारी भी दे दें। भारत को आर्यों के आगमन से पहले कोयामूरी द्वीप भी कहते थे। कोया गोंडी भाषा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शब्द है जिसका मतलब माँ की कोख, गुफा और महुए का फूल होता है । इस धरती पर इस भौगोलिक भूभाग में पहला मानव माँ की कोख से आया और बड़ा होने पर भोजन के रूप में सर्वप्रथम महुए का सेवन किया और प्रकृतिक गुफाओं में जीवन यापन किया। इसलिए आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश के मूलनिवासियों को कोयतूर या कोयतोड़ कहते थे और उनके जीवन शैली या प्रचलित धर्म को कोयापुनेम कहते थे। यही कोया पुनेम आर्यों के आगमन के बाद वैदिक धर्म का स्वरूप ले लिया और बाद में बौद्ध धर्म फिर सनततान धर्म से होता हुआ आज हिन्दू धर्म के रूप में दिखाई देता है। आर्यों के आक्रमण से पहले पूरे कोया द्वीप की संस्कृति एक झलक आप हड़प्पा और मोहनजोदड़ों की खुदाई से मिली संस्कृतियों में देख सकते हैं ।

गोंडी भाषा में पूनल का अर्थ नया और सावरी का अर्थ वर्ष होता है

नववर्ष भी इसी संस्कृति का एक हिस्सा है जिसका स्वरूप आज भी हजारों सालों के बावजूद बदला नहीं है। वैदिक काल से पहले से लेकर आज तक 4000-5000 साल के अंतर के बावजूद आज भी मूल प्राकृतिक नववर्ष की अवधारणा अभी भी प्रचलन में है  जो विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न विभिन्न नामों से जानी जाती है लेकिन एक साथ मनाई जाती है। इसी प्राकृतिक नववर्ष को पूनल सावरी कहते हैं जिसे सामान्य लोग लगभग भूल गए हैं लेकिन मध्य भारत के जनजातीय क्षेत्रों में आज भी इसे पूर्ववत हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
गोंडी भाषा में पूनल का अर्थ नया और सावरी का अर्थ वर्ष होता है। यानि पूनल सावरी का मतलब  नववर्ष होता है। यह नववर्ष हिंदूवर्ष चैत के प्रथम दिन यानि चैत प्रतिप्रदा से शुरू होता है और अगले पूर्णिमा तक चलता है। इस पखवाड़े को नववर्ष पखवाड़ा कहते हैं। गोंडी में सेमल के पेड़ को ह्णसावरी मड़ाह्ण कहते हैं और सावरी शब्द यहीं से लिया गया है क्यूंकि इस समय सेमल के पेड़ में लाल लाल पुष्प आते हैं और नववर्ष के आगमन की बेला का स्वागत करते हैं। ध्यान रहे कि प्रकृति में इसी समय हजारों अन्य वृक्षों में भी फूल आते हैं लेकिन सेमल के पेड़ को ही इस वर्ष का प्रतीक क्यूँ माना जाता है ?

सेमल प्रकृति का एक ऐसा पेड़ है जिसमें एक से लेकर बारह पत्तों का क्रम मिलता है। सेमल प्रकृति का अकेला ऐसा वृक्ष है जीमें किसी टहनी पर एक पत्ते से लेकर 12 पत्तों तक लगे मिलते हैं जो वर्ष के बारह महीनों का प्रतीक रूप होता है।  कोयपुनेमी मुठवा पारी पहाण्दी कुपार लिंगों ने इसी पेड़ के नीचे बैठकर इसी दिन पूरे कोया समाज को बारह कुल गोत्रों में बांटा था और 33 शिष्यों को दीक्षा देकर कोया पुनेम के प्रचार प्रसार के लिए तैयार किया था। गोंडी या कोयतोड़ व्यवस्था में प्रथम माह को उंदोमान या मड़ मान कहलाता है ( गोंदी में मड़ का अर्थ मधुर और मान का अर्थ महीना होता है ) जिसे हिन्दू लोग मधुमास कहते हैं ।

गोंडी महीनों के नाम 

1. उंदोमान, 2. चिंदोमान, 3. कोदोमान,  4. नालोमान, 5. सायोमान 6. सारोमान 7. येरोमान, 8. अरोमान 9. नरोमान, 10. पदोमान, 11. पादूमान, 12.पांडामान कहा जाता है ।

केवल फसलों पर आधारित हुआ करते थे त्योहार

प्राचीन भारत(कोयामूरी द्वीप)  कृषि प्रधान देश था और यहाँ से सभी त्योहार केवल फसलों पर आधारित हुआ करते थे जो बाद में आर्यों के आक्रमण के बाद कई किंवदंतियों, देवी देवताओं और धार्मिक अनुष्ठानों से जोड़ दिये गए और प्राचीन कोयतूरियन परंपराओं में वैदिक कर्मकांड डालकर मूल स्वरूप को विकृत कर दिया गया है। पूनल सावरी भी नयी फसल के आगमन का स्वागत और अभिनंदन है जिसका विकृत रूप आज के हिन्दू समाज के साथ साथ जनजातीय समाज में भी देखने को मिलता है।  पूरे वर्ष में कोयतोड़ कृषि व्यवस्था को दो मूल भागों में विभाजित किया जाता है उन्हारी (रबी की फसल ) और सियारी (खरीफ की फसल) । चूंकि पहले सिंचाई बके साधन नहीं हुआ करते थे और पूरी कृषि व्यवस्था केवल वर्षा पर निर्भर होती थी इसलिए वर्ष में केवल दो फसल ही ली जाती थी। जैसे जैसे विकास के क्रम में हम आगे बढ़े वैसे वैसे सिचाई के साधनों में बढ़ोत्तरी हुई और रबी और खरीफ के अलावा जायद कि फसल भी लेने लगे । उन्हारी और सियारी फसलों के बीच में जो तीन महीने का अंतर होता था उसमें ही शादी विवाह और अन्य घरेलू कार्यों को सम्पन्न किया जाता था।  इस समय गेहूं की फसल पूरी तरह से पककर तैयार होती है और किसान फसल की कटाई, मडाई, और भंडारण के लिए पूरे घर
को तैयार करते हैं। पूरी प्रकृति अपने शबाब पर होती है। अगर आप ध्यान दें तो सम्पूर्ण भारत में इसी समय कई और त्योहार मनाए जाते है जो पूनल सावरी (प्राकृतिक नववर्ष)  के ही आधुनिक स्वरूप है और भाषा, क्षेत्र के अनुसार विभिन्न विभिन्न नामों से पुकारे जाते हैं जबकि सबमें मूल भावना एक ही है कि प्रकृति का स्वागत और प्रकृति के साथ चलने कि परंपरा का निर्वहन। और इन आँय सभी त्योहारों के मनाने का तरीका भी काफी हद तक मिलता जुलता है।
                 हिन्दू नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को शरू होता है और उनकी मान्यता के अनुसार इस दिन ग्रह और नक्षत्र मे परिवर्तन होता है। हिन्दी महीने चैत की शुरूआत इसी दिन से होती है।पेड़-पोधों मे फूल,मंजर,कली इसी समय आना शुरू होते है, वातावरण मे एक नया उल्लास होता है जो मन को आह्लादित कर देता है।  इसी दिन से मूलनिवासी जनजातीय लोग जवारा बोते हैं और इसी के समकक्ष हिंदुओं में नवरात्र की शुरूआत होती है। जिसमे हमलोग उपवास रह कर देवी कि पूजा आराधना करते हैं जबकी कोयतूड़ व्यवस्था में किसी भी देवी देवता का स्थान नहीं है केवल प्रकृति का स्वागत और अभिओनंदन होता है। लेकिन आजकल आप जावरा पर्व और नवरात्रि पर्व को एकसाथ मनाते देख सकते हैं जो दो संस्कृतियों का संगम है।

नई फसल घर मे आने का समय भी यही है

चारों तरफ गेहूं की पकी फसल का दर्शन, आत्मबल और उत्साह को जन्म देता है। खेतों में हलचल, फसलों की कटाई , हंसिए का मंगलमय खर-खर करता स्वर और खेतों में डांट-डपट-मजाक करती आवाजें। जरा दृष्टि फैलाइए, भारत के आभा मंडल के चारों ओर पूनल सावरी क्या आया मानो खेतों में हंसी-खुशी की रौनक छा गई। नई फसल घर मे आने का समय भी यही है। इस समय प्रकृति मे उष्णता बढ्ने लगती है, जिससे पेड़ -पौधे, जीव-जन्तु मे नव जीवन आ जाता है। लोग इतने मदमस्त हो जाते है कि आनंद में मंगलमय  गीत गुनगुनाने लगते है। नव वर्ष एक उत्सव की तरह पूरे भारत में अलग-अलग स्थानों पर तथा अलग अलग विधियों से मनाया जाता है। विभिन्न सम्प्रदायों के नव वर्ष समारोह भिन्न-भिन्न होते हैं और इसके महत्त्व की भी विभिन्न संस्कृतियों में परस्पर भिन्नता है। लेकिन इन विन्नताओं के वावजूद पूनल सावरी का स्वरूप एक ही है क्यूंकी प्रकृति कभी बदलती नहीं मानव भले ही उसे मनाने का अपना तरीका बदल ले।

कोयतोड़ समय की गणना और पर्व पखवाड़ा का महत्व

चूंकि कोयतोड़ व्यवस्था में हर समय कि गणना चंद्रमा (नालेंज) के हिसाब से होती है और महीने कि गणना अमावस्या से अमावस्या तक होती है जबकि इसके विपरीत हिन्दुओ के महीने की गणना पूर्णिमा से पूर्णिमा तक होती है और सूरी आधारित होती है।  कोयतोड़ व्यवस्था में कोई भी पर्व एक दिन न मानकर पूरे 15 दिन (पखवाड़ा) तक मनाया जाता है जिसकी शुरूवात अमावस्या से होती और अगले पूर्णिमा पर समापन होता है। इसलिए आप देखेंगे कि इसी 15 दिनों में पूरे भारत में फसलों के त्योहार मनाए जाते हैं जिनहे हम विभिन्न नामों से जानते और मानते हैं। पंजाब में नया साल बैशाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाया जाता है। तेलगु नया साल मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में इसे उगाड़ी या उगादी (युगादि=युग+आदि का
अपभ्रंश) के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नया साल विशु13 या 14 अप्रैल को तमिलनाडुऔर केरल में मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेंडर नवरेह १९ मार्च को होता है। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड नया वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी और गुड़ी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरूविजा नए साल के रूप में मनाया जाता है।  बंगाली नया साल पोहेला बैसाखी14 या 15 अप्रैल को आता है। पूनल सावरी के आधुनिक रूप जो भारत के विभिन्न हिस्सों में आज भी जीवित हैं और धूम धाम से मनाए जाते हैं जिसे आप नीचे दिये गए सूची में देख सकते हैं।
त्योहार राज्य
गुड़ी परवा          महाराष्ट्र
नवरेह जम्मू कश्मीर
वैशाखी पंजाब और हरियाणा
तिरुविजा         तमिलनाडु
उगाड़ी कर्नाटक, आंध्रप्रदेश
पोहेला बैशाखी पश्चिम बंगाल
चेटी चंद गुजरात
नव संवत्सर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार

यह त्योहार मूलतया मातृ प्रधान त्योहार है 

आज भी गोंडवाना क्षेत्र मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और झारखंड राज्यों के जन जातियों में  पूनल सावरी को बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। यह त्योहार मूलतया मातृ प्रधान त्योहार है जिनमें मातृ शक्तियों कि मुख्य भूमिका होती है । महिलाएं ही इस त्योहार को मनाने के लिए आगे रहती हैं और पुरूष उनका साथ देते हैं। भोपाल स्थगित सगा सग्गुम आदिम सामाजिक संस्था पूनल सावरी को विगत कई वर्षो से मानता आ रहा है जोप उंदोमान (चैत) के प्रथम दिन से शुरू होकर उंदोमान के ही 15वें दिन यानि पूर्णिमा को पूरा होता है। आज पूरे कोया विदार को पूनल सावरी कि ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनाएँ  । इस कार्यक्रम का समापन 19 अप्रैल 2019, दिन शुक्रवार  को सम्मान होगा होगा। अपनी संस्कृति और सभ्यता को आत्मसात करने और प्राकृत के साथ ताल ताल में ताल मिला के चलाने का समय है और यही कारण है कि आज भी जन जातीय समाज अपनी संस्कृति और सभ्यता को सहेजने में सफल रहा है। कितनी भी विषम परिस्थियाँ रही हों कोडतोड़ समाज आज भी कोयामूरी द्वीप में अपनी उपस्थिती को बरकरार रखजे हुए है और अपनी परंपरों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सौपते हुए आगे बढ़ रह है।
पूरे कोया विदार को बहुत बहुत सेवामान और सेवा सेवा सेवा जोहार ।
डॉ सूर्या बाली सूरज धुर्वे

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