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मानवता के प्रबल प्रहरी भारतीय इतिहास के महान समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले

मानवता के प्रबल प्रहरी भारतीय इतिहास के महान समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले

आज 11 अप्रैल को जयंति पर विशेष 

संपादकीय लेख
ज्योतिराव गोविंदराव फुले एक महान विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी व्यक्ति थे। आपको 'महात्मा फुले' एवं 'ज्योतिबा फुले' के नाम से भी जाना जाता है। आपका जन्म आज के ही दिन यानी 11 अप्रैल 1827 को पुणे जिले के खानवाड़ी नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम गोविंद राव फुले और माता का नाम चिमना बाई फुले था। जब ज्योतिराव एक वर्ष के ही थे तभी इनकी माँ का स्वर्गवास हो गया था जिसके कारण इनका लालन पालन एक गरीब आया द्वारा किया गया। आपका जन्म एक माली परिवार में हुआ था जिसका पुश्तैनी काम फूलों का धंधा था । माली जाति में जन्मे फुले ने आडंबरवाद के विरोध में जो शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय से वंचित थे उन्हें शिक्षा प्राप्त करने का हक अधिकार दिलाने के लिये ही नहीं दिये जाने के लिये प्रचार और प्रसार के लिए बेहतरीन काम किया।

ज्योतिराव का बचपन बड़ी गरीबी और मेहनत में गुजरा था पर पढ़ने पर रहे अव्वल

इनके पिताजी और दादा जी सतारा से पुणे आए थे जिसके पीछे भी एक विशेष कारण था। किसी जातीय बाद विवाद में इनके पिता पूरा परिवार लेकर सतारा से पुणे आ गए थे। ज्योतिराव का बचपन बड़ी गरीबी और मेहनत में गुजरा था। वे फूलों के व्यापार में और खेती में अपने पिता जी का हाथ बताया करते थे। बचपन में माँ के प्यार से वंचित ज्योतिबा ने अपना ध्यान पढाई में लगाकर बिताया। ज्योतिराव शुरू से ही पढ़ने लिखने में अव्वल थे और रोज स्कूल जाते थे। उनकी शिक्षा के प्रति लगन को देख कर उनके आस पास के आंडवरवाद को बढ़ावा देने वालों ने उनके पिता को भड़काया और कहा कि इस को पढ़ा लिखाकर क्या करोगे ? ज्यादा पढ़ाओगे तो ये लड़का हाथ से निकाल जाएगा। कुछ कक्षा तक ही मराठी में पढ़ाई कर पाये थे कि उनके पिता ने उनकी पढ़ाई छुड़वाकर फूलों के धंधे में लगा दिया। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा तो प्राथमिक विद्यालय में मराठी माध्यम से हुई थी लेकिन बाद में स्कॉटिश मिशन हाई स्कूल पुणे से अंग्रेजी माध्यम से मैट्रिक परीक्षा पास की।

पत्नी के साथ मिलकर जो शिक्षा की ज्योति जलायी वो आज तक हो रही रौशन 

काफी दिनों तक इन्हें पढ़ाई और स्कूल से दूर रखा गया लेकिन एक दिन एक मुस्लिम अध्यापक ने इनके पिता को समझाया और इनको फिर से स्कूल भेजने के लिए इनके पिता पर दबाव बनाया आखिर ज्योतिराव फिर से स्कूल जाने लगे और 21 साल की उम्र में मैट्रिक की परीक्षा पास किया।  उस समय हिन्दुओ में बाल विवाह की प्रथा आम थी इसलिए ज्योतिराव का विवाह भी मात्र 13 साल की उम्र में सन 1840 में सावित्रीबाई फुले से हो गया। हालांकि ज्योति राव खुद ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाये लेकिन उन्होने अपनी पत्नी के साथ मिलकर जो शिक्षा की ज्योति जलायी वो आज तक रौशन है और हजारों लाखों लोगों को आज भी रौशनी देकर राह दिखा रही है। सुहागरात के दिन इन्होने अपनी पत्नी को पढ़ने लिखने की समाग्री भेंट की और सावित्री बाई को पढ़ने और पढ़ाने के लिए तैयार किया और इस तरह सावित्री बाई फुले इनकी पहली छात्रा बनी।

शिक्षा से वंचितों के लिए खोला पहला स्कूल 

जब सावित्री बाई को अच्छी तरह से पढ़ना लिखना आ गया तब उन्होने सावित्री बाई से अन्य ऐसे इसान मानव समाज जिन्हें पढ़ने लिखने या शिक्षा प्राप्त करने से महरूम किया जा रहा था उनको पढ़ाने लिखाने का संकल्प लिया और पुणे में ही एक छोटा सा स्कूल खोला और उसमे अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को पहला अध्यापक नियुक्त किया। अब इस बात से आडंबरवाद को बढ़ावा देने वाले और वे लोग जो वंचितों को शिक्षा प्राप्त करने से कोसो दूर रखना चाहते थे उनको बहुत मिर्ची लगी और वे कुछ ज्यादा ही जलने लगे। एक बार फिर से आडंबरवाद के साथ शिक्षा उन वंचितों को कतई भी न मिल पाये इसका षडयंत्र रचकर उनके पिता को भड़काया जिससे उनके पिता ने स्कूल बंद करने के लिए दबाव बनाया लेकिन ज्योतिबा फुले पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और न ही उनका इरादा बदला। इससे उनके पिता ने उन्हे घर से निकल जाने की धमकी दी जिससे फलस्वरूप वे अपनी पत्नी सावित्री बाई को लेकर अपने पिता के घर से निकल गए और कुछ अन्य मित्रों की मदद से एक नया जीवन शुरू किए और सन 1858 में एक नए विद्यायालय की शुरूवात किया।

पशुओं के बाड़ें स्कूल की शुरूआत

सन 1848 को पशुओं के एक छोटे से बाड़े में इन्होने बच्चों को पढ़ने के लिए जिस स्कूल की शुरूआत की थी उसमे लोग अपने बच्चों को छुप छुप कर पढ़ने भेजते थे। जब उस स्कूल में सावित्री बाई पढ़ाने के लिए जाती थीं तो पुणे के आडंबरवाद को बढ़ावा देने वाले और वे लोग जो वंचित समाज या शोषित वर्गों को शिक्षा व्यवस्था से दूर रखना चाहते थे उनके द्वारा उन्हे तिरस्कृत और अपमानित किया जाता था और यहाँ तक की उनके ऊपर कीचड़ और गोबर फेंका जाता था । जिससे कारण वे सावित्री बाई को एक अतिरिक्त साड़ी लेकर स्कूल भेजते थे । जिससे वो स्कूल के अंदर जाकर बदलती थी क्यूंकी गोबर और कीचड़ के कारण जो साड़ी पहनकर स्कूल जाती थीं वो गंदी हो जाती थी।

मुस्लिम शिक्षिका फातिमा शेख का बेहतरीन साथ 

एक नेक मुस्लिम महिला फातिमा शेख ने ज्योतिबा का बाखूबी साथ दिया और इनकी पत्नी सावित्री बाई के साथ मिलकर इनके आंदोलन को सफल बनाया और शिक्षा, ज्ञान, शैक्षणिक अध्ययन के लिये ऐसे परिवारों के बच्चों में शिक्षा कि ज्योति जलायी जिन्हें शिक्षण कार्य करने पर भी पाबंदी लगाई जाती थी यह उनका अधिकार नहीं है कहा जाता है। इस तरह सावित्री बाई और मुस्लिम महिला ने मिलकर शिक्षा के क्षेत्र में एक साथ मिलकर काम किया । महिलाओं व शोषितों-पीड़ितों के उत्थान के लिय इन्होंने अनेक कार्य किए। महात्मा फुले भारतीय समाज में प्रचलित जाति पर आधारित विभाजन और भेदभाव के विरुद्ध थे और सभी के लिए शिक्षा के लिए प्रबल समर्थक थे।

जातिगत आधारित शिक्षा के खिलाफ मुहिम छेड़ने का निर्णय लिया

एक छोटी सी घटना ने ज्योतिबा के जीवन को बदल कर रख दिया। एक बार वे अपने एक उच्च वर्ग के दोस्त के साथ उसके विवाह में गए तो किसी अन्य ने उन्हे पहचान लिया और उन्हे शादी की बारात से वापस निकल जाने के लिए दबाव बनाया और जातीय भेदभाव वाले शब्दों से अपमानित किया लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया यहाँ तक की उनके दोस्त ने भी कुछ नहीं कहा। शादी में उच्च वर्गों के द्वारा तिरस्कृत और अपमानित किए जाने के कारण ज्योति राव बहुत दुखी हुए और यहीं से उन्होने आंडबरवाद और जातिगत आधारित शिक्षा के खिलाफ मुहिम छेड़ने का निर्णय लिया।

सत्य शोधक समाज की स्थापना 

थामस पेन की द्वारा लिखित राइट आॅफ मैन (मानव के अधिकार) किताब का ज्योतिबा के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। धीरे धीरे ज्योतिबा ने समाज को जागृत करने और समाज में व्याप्त बुराइयों जैसे अशिक्षा, जातिगत भेदभाव, सती प्रथा, महिलाओं के प्रति अन्याय, बाल विवाह आदि के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया और लोगों को आंदोलन में शामिल करने के लिए आह्वान किया। सितम्बर 1873 में इन्होने महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया। अपने एक उच्च वर्ग के मित्र की विधवा बहन का दुख देखकर इन्होने सावित्री फुले के साथ मिलकर भारत का पहला विधवा आश्रम बनाया और बोर्ड लगवा दिया कि कोई भी विधवा आकर इस आश्रम में शरण ले सकती है और अगर वो गर्भवती है तो उसकी जचगी का भी ध्यान रखा जाएगा। चूंकि उस समय उच्च वर्गों में ही विधवा विवाह नहीं संभव था इसलिए उनके आश्रम में ज्यादातर विधवा महिलाएं उच्च वर्ग के परिवारों से ही थीं। इन्ही में एक उच्च वर्ग की विधवा स्त्री को उसके किसी रिश्तेदार द्वारा ही गर्भवती कर दिया गया था और वो आत्महत्या करने वाली थी तब ज्योतिबा फुले उसे अपने आश्रम ले आए और अपनी पत्नी के साथ मिलकर उसको हौसला और सहारा दिया और उससे बच्चे को खुद पाला और जिसे बाद में उन्होने अपना लिया और अपने नाम दिया यशवंत राव फुले। उनके इस कार्य से उच्च वर्ग का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया और वे उन्हे मारने के लिए दो तलवारबाजों को भेजे लेकिन ज्योतिबा से प्रभावित होकर दोनों तलवार बाज वापस लौट गए।

सामाजिक जागरूपता और उत्थान के लिए संघर्ष 

ज्योतिबा अपनी भजन मंडली बनाकर गाँव गाँव में जाकर शिक्षा के लिए प्रचार प्रसार करते थे कई सामाजिक टोलियाँ बनाकर लोगों को समझाते थे और जो धीरे धीरे एक सामाजिक आंदोलन का स्वरूप ले लिया। इनकी लोकिप्रयता और शिक्षा के प्रति समर्पण देख कर अंग्रेजों ने इन्हे पुणे नगर पालिका का मेयर तक बनाया था जहां इनहों साफ पीने के पानी, साफ सफाई, बिजली बत्ती, सड़क पार्क आदि की समुचित प्रबंध किया और अंग्रेजों के साथ मिलकर समृद्धि भारत की रचना में अपना योगदान दिया।

मानवता की सेवा में गुजार दिया पूरा जीवन

ज्योतिबा फुले ने अपनी पूरी जिंदगी मानवता की सेवा में गुजार दिया था। इनकी कोई औलाद नहीं थी इसलिए इन्होने अपने गोद लिए बेटे यशवंत को आधी संपत्ति देकर शेष आधी संपत्ति को सत्यशोधक समाज के आंदोलन को दे दिया था। इन्हे अंग्रेजों की तरफ से बहुत सम्मान मिले और जिसे उन्होने बहुत पैसे और धन मिले जिसे सत्य शोधक समाज को दान कर दिया । इस संगठन के द्वारा वे आस्था के नाम पर धर्म में व्याप्त आडम्बर और कर्म कांड का बहुत विरोध किय और उन्होंने आडंबर वाद के खिलाफ उन्होंने जो बिगुल फूंका वो बहुत ही कारगर और सार्थक सिद्ध हुआ ।

महात्मा की उपाधि मिली तो सरकार ने एग्रीकल्चर एक्ट किया पास 

इनकी समाजसेवा देखकर वर्ष 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी। ज्योतिबा ने पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। अपने जीवन काल में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं जिनमे से कुछ बहुत प्रशिद्ध हुई जैसे गुलाम गीरी, छत्रपति शिवाजी का पौवाड़ा, तृतीय रत्न, राजा भोसला का पौवाड़ा, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत इत्यादि। महात्मा ज्योतिबा फुले व उनके संगठन के संघर्ष के कारण ही सरकार ने एग्रीकल्चर एक्ट पास किया।

फुले की विचारधारा का महत्व और अंतिम विदाई 

फुले के समाजिक और  शैक्षणिक कार्यों को साहू जी महराज और भीम राव अम्बेडकर ने आगे बढ़ाया और आगे चलकर आडंबरवाद के खिलाफ उनके विचारों को माननीय कांशीराम जी दूर तक ले आये। आज फुले और आंबेडकर की सांस्कृतिक और सामाजिक क्रांति की विरासत को आगे ले जाने का समय है। यह भी कहा जाता है कि फुले-आंबेडकर विचारधारा की समाज की समग्र समझ, गांधी व नेहरू या तिलक व सावरकर की समझ से
नैतिक दृष्टि से बेहतर थी क्योंकि वह बहुजनों  की आकांक्षाओं और मूल्यों की प्रतिनिधि थी। लगभग 63 वर्ष कि उम्र में 28 नवंबर 1890 के दिन इस महान क्रांतिकारी महापुरुष ने अंतिम सांस ली और अपने पीछे एक ऐसी
विरासत छोड़ गए जिससे आने वाली पीढ़ियाँ सदियों तक ऊर्जा और प्रेरणा प्राप्त करती रहेंगी। ऐसे क्रांतिकारी समाजसुधारक और महानायक को उनकी जन्मतिथि पर कोटि कोटि नमन।

संपादकीय लेख
डॉ सूर्या बाली सूरज धुर्वे

भोपाल 

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