क्रांतिसूर्य महामानव बिरसा मुण्डा की जयंति पर विशेष
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उलगुलान मतलब क्रांति, उलगुलान मतलब संघर्ष, उलगुलान मतलब आन्दोलन
आज जरूरत है बिरसावाद की, बिरसा के हूलजोहार की, बिरसा के उलगुलान की
आजादी की लड़ाई में आदिवासियों का इतिहास खून से रंग गया
धरती के आबा बिरसा ने अबुआहातु अबुआराज अर्थात हमारी जमीन हमारा राज को स्थापित करने के लिए उलगुलान किया था । आज भी बिरसा के विचार सम्पूर्ण आदिवासी समाज को राह दिखा रहे हैं । वीरों की भूमि झारखंड जहां के जर्रे जर्रे में शहीदों के गीत गायें जाते हैं, वहां के लोगों के दिलों में आज भी बिरसा जिंदा हैं । गवर्मेंट आॅफ इण्डिया एक्ट के अध्याय 5 के भाग 10 में अनुच्छेद 244 के तहत जनजातिय क्षेत्रों का प्रबंधन आदिवासी केन्द्रित बनाने का प्रावधान किया गया है । अनुच्छेद 244 के तहत आदिवासी क्षेत्रों को पॉचवी और छठवी अनुसूची में बांटा गया है । असम नागालैण्ड मिजोरम त्रिपुरा जैसे राज्यों को छठवीं अनुसूची के तहत जनजातिय क्षेत्र तथा देष के अन्य 9 राज्यों के आदिवासी बहुल क्षेत्रों को पॉचवी अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्र के रूप में वगीर्कृत किया गया है । फिर भी क्या कारण है कि आदिवासी इन क्षेत्रों के गॉवों से पलायन कर रहे हैं । देश में लगभग 30 करोड़ लोगों की जीविका आज भी जंगलों से चलती है तो यहां ऐसे उद्योग स्थापित क्यों नही किये जाते जिससे इन लोगों को वनोपज से संबंधित रोजगार दिया जा सके ?हर्बल, आयुर्वेद और देशी इलाज का ज्ञान आदिवासियों से ग्रहण करके सम्पूर्ण देश-दुनियां में जड़ी-बूटियों के जानकार बताकर खूब लाभ कमा रहे हैं और दूसरी तरफ इसके असली हकदार फूटी कौड़ी को तरस रहे हैं । आज आवश्यकता है भारत के आदिवासी एक कैसे हों ? जंगे आजादी का दीवाना, आदिवासियों का फरिस्ता, आदिवासियों का महानायक, मसीहा, क्रांतिसूर्य, इस धरती पर आदिवासियों का आबा बिरसा की जयंती के अवसर पर हम सभी देश के आदिवासी एक मंच पर आकर यह विचार करें, मंथन करें कि आदिवासियों की समस्याओं का समाधान कैसे हो ? आदिवासी अस्मिता, पहचान और संकट से सुरक्षा कैसे हो ? जल, जंगल और जमीन, संवैधानिक अधिकार, भाषा और संस्कृति की रक्षा कैसे हो ? आज आवश्यकता है भारत के आदिवासी एक कैसे हों ? भारत के आदिवासियों को सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक आजादी कैसे हासिल हो ? इन गंभीर और संवेदनशील मुद्दों पर चिंतन और मंथन करने की आवश्यकता है तभी बिरसा के उलगुलान की सार्थकता पूर्ण होगी । तभी बिरसा की जंयती के अवसर पर हमारी इस समाज के प्रति संवेदना, प्रेम, करूणा, त्याग और सच्ची भावना प्रदर्शित होगी।
आदमी को मारा जा सकता है लेकिन उसके विचारों को नहीं
महामानव बिरसा मुण्डा का जन्म आज ही के दिन 15 नवम्बर, 1875 को वर्तमान झारखण्ड राज्य की राजधानी रांची के खूंटी जिले के उलहातु गॉव में हुआ था । आज झारखंड में बिरसा के नाम पर चौक, चौराहों, स्कूल, भवन, स्टेडियम तथा हवाई अड्डा तक है । क्रांतिसूर्य महामानव भगवान बिरसा कहते थे आदमी को मारा जा सकता है लेकिन उसके विचारों को नही । आज भी बिरसा के विचार सम्पूर्ण आदिवासी समाज को राह दिखा रहे हैं । वीरों की भूमि झारखंड जहां के जर्रे जर्रे में शहीदों के गीत गायें जाते हैं, वहां के लोगों के दिलों में आज भी बिरसा जिंदा हैं । जंगें आजादी के दीवाने बिरसा के उलगुलान का सपना था कि आदिवासी समाज को तमाम तरह के शोषण और दमन से मुक्त कराना । बिरसा के उलगुलान का मकसद सिर्फ झारखण्ड से अग्रेंजी साम्राज्य से मुक्ति दिलाना ही नही था बल्कि देश को अग्रेंजी हुकूमत से तथा देश के सूदखोर, साहूकार, जमीदार धिक्कुओं से भी मुक्त कराना था । आजादी के महानायक के मन में यह विचार उठने लगा कि आदिवासियों की दशा में परिवर्तन कैसे हो ? साम्राज्यवादियों, सूदखोरों, जमीदारों, दलालों,वर्णव्यवस्थावादी आदिवासी विरोधियों से मुकाबला कैसे हो ? आदिवासियों की जल, जंगल, जमीन की सुरक्षा कैसे हो ? आदिवासी अस्मिता, पहचान, नारी सुरक्षा, सांस्कृतिक मयार्दा की रक्षा कैसे हो ?देश में आज भी जंगलों से चल रही लगभग 30 करोड़ लोगों की जीविका
धरती के आबा बिरसा ने अबुआहातु अबुआराज अर्थात हमारी जमीन हमारा राज को स्थापित करने के लिए उलगुलान किया था । बाद में सन 1927 में भारतीय वन अधिनियम थ्वतमेज त्पहीज ।बज 1927 बनाकर अंगे्रजी हुकूमत ने जंगलों को राजस्व प्राप्ति का साधन बनाया तथा अग्रेंजों ने आदिवासी बहुल वर्जित और आंशिक वर्जित क्षेत्रों में वनोपज का दोहन कम किया । इस कारण वहां के वनोपज और जैव विविधता को अधिक क्षति नही हुई थी । गवर्मेंट आॅफ इण्डिया एक्ट के अध्याय 5 के भाग 10 में अनुच्छेद 244 के तहत जनजातिय क्षेत्रों का प्रबंधन आदिवासी केन्द्रित बनाने का प्रावधान किया गया है । अनुच्छेद 244 के तहत आदिवासी क्षेत्रों को पॉचवी और छठवी अनुसूची में बांटा गया है । असम नागालैण्ड मिजोरम त्रिपुरा जैसे राज्यों को छठवीं अनुसूची के तहत जनजातिय क्षेत्र तथा देश के अन्य 9 राज्यों के आदिवासी बहुल क्षेत्रों को पॉचवी अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्र के रूप में वगीर्कृत किया गया है । फिर भी क्या कारण है कि आदिवासी इन क्षेत्रों के गॉवों से पलायन कर रहे हैं । जो जल, जंगल, जमीन है, जो संसाधन हैं, वे आदिवासियों से छिनते जा रहे हैं । आदिवासी वनभूमि में पट्टा की लड़ाई तक सीमित हैं । वितमेज तपहीज ंबज में चेप्टर 1 चेप्टर 2 जिसमें वनोपज की बात है, जड़ीबूटियों की बात है । इसके बारे में खास बहस की जरूरत है । आदिवासी की वनोपज एवं जड़ीबूटियों, लघुवनोपज से संबंधित इंडस्ट्रीज क्यों नही बन पा रहे हैं ? । अधिक से अधिक आदिवासियों के लिए वनोपज हेतु आॅपरेटिव सोसाइटियां क्यों नही खोले जा रहे हैं ? आज भी जंगल का ज्ञान और जड़ीबूटियों का ज्ञान आदिवासियों के अलावा किसी अन्य को नही है । हर्बल, आयुर्वेद और देशी इलाज का ज्ञान आदिवासियों से ग्रहण करके सम्पूर्ण देश-दुनियां में जड़ी-बूटियों के जानकार बताकर खूब लाभ कमा रहे हैं और दूसरी तरफ इसके असली हकदार फूटी कौड़ी को तरस रहे हैं । अनुसूचित क्षेत्र के जंगलों में आज भी साढ़े तीन हजार से अधिक पौधों में औषधीय गुण पाये जाते हैं । आधुनिक मेडीसिन का जन्मदाता आदिवासी है । इसका ओरिजिन आदिवासी के पास है । देश में लगभग 30 करोड़ लोगों की जीविका आज भी जंगलों से चलती है तो यहां ऐसे उद्योग स्थापित क्यों नही किये जाते जिससे इन लोगों को वनोपज से संबंधित रोजगार दिया जा सके ?बिरसा में अद्भुत संगठनकर्ता के गुण थे
युगान्धर बिरसा मुण्डा भारत के पहले ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हैं, जिन्होंने पहली बार संगठित होकर अंग्रेजों तथा सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन किया था तथा उलगुलान का नारा दिया । उलगुलान मतलब क्रांति, उलगुलान मतलब संघर्ष, उलगुलान मतलब आन्दोलन । बिरसा में अद्भुत संगठनकर्ता के गुण थे, उस सदी के इस कम उम्र महामानव ने एकसाथ क्रांति और संघर्ष छेड़ दिया । दुनियां में राज करने वाली अंग्रेजी हुकुमत को अपनी माटी के असली सपूत होने का सबूत दे दिया । इस आदिवासी जननायक ने तत्कालीन अंग्रेजी सरकार, देशी जमीदार, जागीरदार, धिकु और सांमतों के अस्तित्व की बुनियाद को हिलाकर रख दिया, आखिरकार अंगे्रजो को भूमि अधिग्रहण कानून बनाना पड़ा । आदिवासी महापुरूष बिरसामुण्डा, सिंदराय, बिंदराय, डोकामुण्डा, सीदू-कान्हू के आन्दोलन के फलस्वरूप छोटानागपुर टेनेंसी ऐक्ट और संथाल परगना टेनेंसी ऐक्ट कानून बना । ये कानून आदिवासी की जमीन गैर आदिवासी को हस्तांतरित होने से रोकते हैं। ऐसे तमाम कानूनों को आज बदलने की कोशिश की जा रही हैै । भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन किये जा रहे हैं तथा आदिवासियों की जमीनों को गैर आदिवासियों द्वारा कई तरीकों से खरीदे जा रहे हैं । आज असली मालिक अपनी जल, जंगल, जमीन से बेदखल हो रहे हैं ।बिरसा के अबुआदिशोम की बात करता है पेशा कानून
अनुसूचित क्षेत्रों में किस तरह से स्वाशासन लागू हो इसके लिए 1996 में पेशा कानून बनाया गया । पेशा कानून बिरसा के अबुआदिशोम की बात करता है, अबुआराज की बात करता है । पेशा कानून आदिवासियों के स्वाशासन के बारे में बात करता है । बिरसा के उलगुलान को कुछ हद तक पूरा करता है । पेशा कानून आदिवासियों की प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में फिर राष्टÑभाषा में इसके बाद अंतराष्टÑीय भाषा में होना चाहिए की बात करता है । आदिवासी गांवों को परिभाषित करता है, ग्रामसभा को अधिकार की बात करता है लेकिन विडम्बना है कि आज भी पॉचवी अनुसूची के अंतर्गत आने वाले 9 प्रदेशों में इसको सही ढंग से लागू नही किया जा सका । क्यों पेशा, कानून नही बन पा रहा है ? यह चिंतन-मनन का विषय है । भूरिया कमेटी की सिफारिश के आधार पर नगरपालिकाओं का अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विस्तार का कानून आज तक नही आया । पंचायत के विस्तार कानून को च्ंदबींलंज म्गजमदेपवद ।बज वित ैबीमकनसम ।तमं के रूप में जाना जाता है । पेशा कानून में जनजातिय समाज की ग्रामसभा सर्वशक्तिमान है । आदिवासी को अपनी सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृति परम्पराओं और रूढ़ियों के अनुसार विवाद निपटाने तथा अपने प्राकृतिक संसाधनों का परम्परागत ढंग से प्रबंधन करने का अधिकार प्रदत्त है । च्म्ै। कहता है गॉव के लोग बैठकर फैसला करें वही फैसला सही होगा । पेशा कानून में लिखा है कि जब तक ग्रामसभा नही चाहेगी कोई भी विवाद को निपटाने पुलिस वहां नही आ सकती ।पेशा कानून में ग्रामसभा सर्वोपरि
पेशा कानून में ग्राम सभाएं मद्य निषेध का नियमन, बेजा कब्जों की रोकथाम, भूअर्जन के पूर्व सलाह, लघु वनोपज की मालिकी, लघु जलसंसाधनों का प्रबंधन, गौंड़ खनन के खनिज की सिफारिश, गॉव के बाजार का प्रबंधन, कर्ज के लेन-देन पर नियंत्रण, गॉव के विकास की योजनओं का अनुमोदन, लाभार्थियों की पहचान, स्थानीय योजनाओं पर खर्च की राशि पर नियंत्रण और प्रमाणन तथा सामाजिक क्षेत्रों के कार्यों पर नियंत्रण आदि का अधिकार दिये गये हैं । कई राज्यों ने अपने कानूनों में पेशा प्रावधानों से समायोजन करने का संशोधन किया है । मप्र और छग ने सबसे पहले यह कदम उठाये हैं । केन्द्र सरकार ने भारतीय वन कानून में पेशा प्रावधानों के अनुकूल संशोधन कर ग्रामसभाओं को लघुवनोपजों की मालिकी नही सौपीं । ग्राम सभाओं के विवाद निपटाने के अधिकार भी छीन लिये गये । च्म्ै। पेशा कानून में ग्राम सभाओं को हक है कि वे आदिवासी समाज की परम्पराओं और रूढ़ियों के अनुसार उनके विवादों को निपटायेगें परंतु अभी केन्द्र सरकार ने एक ग्राम न्यायालय कानून लागू कर दिया जो पूरे भारत में लागू होगें और मोबाइल कोर्ट के जजेस जाके वहां उनका निपटारा करेगें तो अब आदिवासी की परम्पराओं और रूढ़ियों के अनुसार उनके विवाद निपटाने का हक और अधिकार पहले ग्रामसभाओं को दिया गया था वो सारे अधिकार अब ग्राम न्यायालयों ने ले लिया । इस कारण अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी के लिए पेसा की सार्थकता अपने-आप समाप्त हो जाती है । सभी जनजातिय क्षेत्र पॉचवी अनुसूची के तहत लाये जाये । इस कानून के संबंध में अभी तक अनभिज्ञता प्रदर्शित की जा रही है, वह उचित नही है । जनजातिय क्षेत्रों में देश के अधिकांश जल, जंगल और जमीन तथा खनिज हैं, उन्हें इस कानून के तहत आदिवासियों को तथा स्थानीय समाज को सौंपा जाना चाहिए ।आज आवश्यकता है, राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी नेतृत्व की
हजारों वर्षों से आदिवासियों के साथ अन्याय, अत्याचार, शोषण, दमन और उनके मूल स्थानों से उन्हें खदेड़ने का काम जारी है । उन्हें सभ्यता से दूर रखकर आदिम व्यवस्था में जीवन जीने के लिए मजबूर करने का काम जारी है । आजादी की लड़ाई में आदिवासियों का इतिहास खून से रंग गया । चिडम्मा, रमना अल्हाड़ी, तिलका मांझी, सिधू-कान्हू, बिरसामुण्डा, टान्ट्या भील, गोविंद गुरू, रानी रूपलियानी, तिरोजसिंह, शंकरषाह, रघुनाथषाह, रैनो, बुट्टो और न जाने कितने अनगिनत आदिवासी क्रांतिसपूतों ने आजादी के लिए अपना खून गिराया मगर तथाकथित इतिहासकारों ने इतिहास के पन्नों पर आदिवासी वीरों को स्थान नही दिया । कोई आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी है, ऐसा इतिहास में देखने और सुनने को नही मिलता । आदिवासी आन्दोलन हेतु अलग-अलग स्थानों-प्रदेशों में कई-कई तरह से नेतृत्वकारी समूह उभरे, नेता भी उभरे हैं लेकिन वे अपने जाति तथा भाषा तक सीमित हैं । एक अकेली जाति को लेकर कलेक्टर से राज्यपाल और राज्यपाल से राष्टÑपति तक अपने हक और अधिकारों के लिए ज्ञापन दे रहें हैं और सर्वश्रेष्ठ होने का दंभ भर रहे हैं । जबकि आज आवश्यकता है, राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी नेतृत्व की । जब तक आदिवासी इस तरह अलग-अलग जाति, भाषा और सर्वश्रेष्ठता के अंहकार को किनारे रखकर आदिवासी का नेतृत्व नही संभालता तब तक उनके हितार्थ कोई नीतियां बनने वाली नही हैं । आदिवासी आन्दोलन और विद्रोह हजारों सालों से सतत आज भी जारी है, लेकिन अलग-अलग स्थानों से तथा अलग-अलग जाति नेतृत्व के कारण राष्टÑीय स्तर पर संगठित आन्दोलन नही बन पाया है और न ही आज भी इनके पास राष्टÑीय नेतृत्व सामूहिक रूप से उभर पाया है । बावजूद इसके आदिवासी समाज को राष्ट्रीय स्तर पर एक करने के प्रयास तेज हो रहे हैं । बिरसा मुण्डा आज आदिवासी क्रांतिकारिता के एक राष्टÑीय प्रतीक बन गये हैं । आदिवासी राष्टÑीय आन्दोलन के प्रतीक बन गये हैं । तब भी आदिवासी प्रयास अभी भी शून्य है । अकेली जाति और भाषा को किनारे रखकर जरूरत है बिरसा के विस्तार की । आज जरूरत है बिरसावाद की । आज जरूरत है बिरसा के हूलजोहार की । आज जरूरत है बिरसा के उलगुलान की ।भारत के आदिवासी एक कैसे हों ?
जंगे आजादी का दीवाना, आदिवासियों का फरिस्ता, आदिवासियों का महानायक, मसीहा, क्रांतिसूर्य, इस धरती पर आदिवासियों का आबा बिरसा की जयंती के अवसर पर हम सभी देश के आदिवासी एक मंच पर आकर यह विचार करें, मंथन करें कि आदिवासियों की समस्याओं का समाधान कैसे हो ? आदिवासी अस्मिता, पहचान और संकट से सुरक्षा कैसे हो ? जल, जंगल और जमीन, संवैधानिक अधिकार, भाषा और संस्कृति की रक्षा कैसे हो ? आज आवश्यकता है भारत के आदिवासी एक कैसे हों ? भारत के आदिवासियों को सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक आजादी कैसे हासिल हो ? इन गंभीर और संवेदनशील मुद्दों पर चिंतन और मंथन करने की आवश्यकता है तभी बिरसा के उलगुलान की सार्थकता पूर्ण होगी । तभी बिरसा की जंयती के अवसर पर हमारी इस समाज के प्रति संवेदना, प्रेम, करूणा, त्याग और सच्ची भावना प्रदर्शित होगी।लेखक-
Bahot hi badhiya lekh, sabko ek hona padega.
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