सीबीआई जैसी संस्थाओं की गिरती हुई प्रतिष्ठा कैसे बहाल हो ?
लेखक-आजाद सिंह डबास, पूर्व आईएफएस,अध्यक्ष, सिस्टम परिवर्तन अभियानकेन्द्र की यूपीए सरकार के दौरान पिंजड़े का तोता कहलाने वाली सीबीआई आज न सिर्फ पिंजड़े में बंद है अपितु पिंजड़े का यह तोता गंभीर रुप से बीमार भी लगता है। विगत कुछ दिनों से एजेंसी के 2 वरिष्ठतम अधिकारियों (विशेष निदेश कराकेश अस्थाना और निदेशकआलोक वर्मा) के बीच शिकवा/शिकायतों का दौर चल रहा है। सीबीआई के विशेष निदेश कराकेश अस्थाना सहित कई लोगों के खिलाफ घूस लेने के आरोप में एफआईआर दर्ज हुई हैं।अस्थाना पर मनी लॉन्डिंग और भ्रष्टाचार के आरोपी मीट व्यापारी मोईन कुरैषी से 3 करोड़ रुपये की घूस लेने का आरोप है। अस्थाना ने गिरफ्तारी से बचने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में गुहार लगाई है। उन्हें 29 अक्टूबर तक गिरफ्तारी से राहत मिली है। गौरतलब है कि अस्थाना द्वारा 2 माह पूर्व सीवीसी और कैबिनेट सचिव को पत्र लिखकर सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा पर भ्रष्टाचार के 10 मामलो में लिप्त होने के आरोपल गये हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि वर्मा ने कोयला और 2 जी घोटाले में शामिल 2 लोगों कोसेंटकिट्स की नागरिकता लेने से नही रोका। अस्थाना ने सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा परसना से 2 करोड़ रुपये की रिश्वत लेने का भी आरोप लगाया है। सना ने इस बयान में रिश्वत देने की बात कबूली है। आरोपी डीएसपी देवेन्द्र कुमार की गिरफ्तारी हैदराबाद के कारोबारी सतीश बाबूसना का फर्जी बयान दर्ज करने के कारण हुई है। सीबीआई द्वारा अपने ही दफ्तर में छापा मारकर अस्थाना की टीम के डीएसपी को गिरफ्तार करने, अस्थाना द्वारा गिरफ्तारी से बचने हेतु कोर्ट की शरण लेना एवं वरिष्ठतम अधिकारियों के बीच मचे घमासान की खबरें देश की प्रीमीयर जाँच एजेंसी के लिए न सिर्फ चिंताजनक हंै अपितु शर्मसार कर देने वाली भी हंै। सीबीआई के अंदर इस लड़ाई की शुरूआत 2016 में तब प्रांरभ हुई थी जब एजेंसी के दूसरे नम्बर के अधिकारी आर.के दत्ता का तबादला अचानक गृह मंत्रालय में कर दिया गया था। वरिष्ठता के आधार पर दत्ता सीबीआई के भावी निदेशक होना थे लेकिन उनके बजाय राकेश अस्थाना, जो गुजरात कॉडर के आईपीएस अधिकारी है, को सीबीआई का अंतरिम निदेशक बना दिया गया। अगर वरिष्ठ अधिवक्ता प्रषांत भूषण द्वारा सुप्रीम कोर्ट में इनकी नियुक्ति को चुनोती नही दी गई होती तो अस्थाना की नियुक्ति उसी दौरान स्थाई कर दी गई होती। फरवरी 2017 में 1979 बैच के आलोक वर्मा र्को सीबीआई डायरेक्टर बनाया गया,जो आगमुटकॉडर के आईपीएस अधिकारी हैं। वर्मा ने अपनी नियुक्ति के कुछ दिन बाद ही अस्थाना को स्पेशल डायरेक्टर नियुक्ति नही किये जाने का यह कहकर विरोध किया था कि उनके खिलाफ कई तरह के गंभीर आरोप हैं। यहां यह प्रश्न पैदा होता है कि जो सीबीआई सरकार, सरकारी अफसरों और नेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार के बड़े और गंभीर मामलों की जाँच करती है, वह ऐसे अधिकारियों के होते निष्पक्ष जाँच कैसे कर सकती है ? दोनों अधिकारियों के बीच मचे घमासान से निश्चित तौर पर एजेंसी की साख और निष्पक्षता पर गहरा धक्का पहुंचा है। इस घटना से देश की जनता के बीच यह भी संदेश जा रहा है कि जिस संस्था का नेतृत्व ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों के हाथ में हो, उसमें अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों की स्थिति क्या होगी ? यहां बुनियादी सवाल यह भी उठता है कि जब सीबीआई के शीर्ष स्तर पर इस तरह के विवाद चल रहे हों तब प्रधानमंत्री कार्यालय जैसे शीर्ष निगरानी संस्थान चुप्पी क्यों साधे हुए है ? यह भी एक सच्चाई है कि सरकारों के लगातार हस्तक्षेप से देश की तमाम जाँच एजेंसियों और कानून-व्यवस्था से संबंधित एजेंसियों को नुकसान हुआ है। कालांतर में ऐसे अनेक प्रकरण सामने आये हैं जो सिद्ध करते हैं कि हमारे देश की जाँच एजेंसियों में पक्षपात, साजिश और भ्रष्टाचार संस्थागत रुप ले चुका है। सीबीआई के पूर्व डायरेक्टर जोगिंदर सिंह ने अपनी किताब इनसाइड सीबीआई में लेख किया है कि किस-किस तरह से सरकारें जांच को प्रभावित करती हैं।
भारतीय वनसेवा के अधिकारी के रुप में 32 वर्ष तक कार्य करन ेके फलस्वरुप मैं यह कह सकता हूँ कि सीबीआई हो अथवा देश की कोई अन्य एनआईए, सीवीसी, ईडी, इन्कमटेक्स, सीएजी, चुनाव आयोग जैसी संस्था हो, इन सभी की प्रतिष्ठा इनमें कार्यरत वरिष्ठ अधिकारियों के ऊपर ही निर्भर करती है। अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि आजकल वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के स्तर में तेजी से गिरावट आ रही है। प्रश्न यह पैदा होता है कि जब देश के ज्यादातर वरिष्ठ अधिकारी अपनी सेवा के विस्तार एवं पुर्ननियुक्ति हेतु प्रयासरत रहते हों, तब उनसे निष्पक्षता से कार्य करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? आजकल के राजनेता अधिकारियों की इसी कमजोरी का फायदा उठा रहे हैं। यह खबर भी आ रही है कि डायरेक्टर इनफोरसमेंट,जो पूर्व से ही 2 साल के एक्सटेंशन पर सेवा में हैं, उन्हें 26 अक्टूबर को समाप्त हो रही उनकी सेवावृद्धि के उपरांतपुन: सेवावृद्धि दी जा सकती है। जब ऐसे हालात हों तब विजय माल्या, ललित मोदी, नीरव मोदी और मेहूल चौकसी द्वारा हजारों करोड़ लूटकर देश के बाहर भाग जाने से कौन रोक सकता है ? आज सीबीआई ही नही अपितु देश की सभी प्रीमीयर संस्थाओं में आमूल चूल बदलाव की जरुरत है। सुप्रीम कोर्ट की तरह समस्त जाँच संस्थाओं को स्वतंत्र ईकाई बनाया जाना चाहिए। ये इतनी अधिकार समपन्न होनी चाहिएं कि वे बगैर किसी हस्तक्षेप के निर्णय लेने और जांच करने में सक्षम हों। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते यह संभव नही दिख रहा है।
ज्ञात रहे कि मोदी ने 12 वर्ष तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए प्रदेश में लोकायुक्त का गठन नही होने दिया। अन्नाहजारे के लम्बे आन्दोलन उपरांत केन्द्र द्वारा जो लोकपाल विधेयक पारित किया गया था, उसके तहत मोदी सरकार ने आज तक लोकपाल की नियुक्ति नही की है। वर्तमान सरकार के रहते तो सीबीआई की गिरती हुई प्रतिष्ठा का बहाल होना मुश्किल दिख रहा है लेकिन देश हित में सीबीआई समेत अन्य जाँच संस्थाओं को अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस पाना ही होगी। अधिकारियों की सेवा में वृद्धि एवं पुर्ननियुक्ति (सेवानिवृत्ति के कम से कम 5 साल तक)पर तत्काल रोक लगाये जाने की जरुरत है। इस एक कदम से ही बीमारी का काफी हद तक ईलाज हो सकता है।